ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘दीपक, अब मैं मरना नहीं चाहती।’ लिली यह कहते हुए दीपक से चिपट गई। दीपक ने प्यार से उसे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘तो कौन कहता है तुम्हें मरने को? पगली कहीं की!’
‘सच?’ वह और भी दीपक के समीप हो आई। आज कितने ही दिन बाद दीपक की बांहों में इस प्रकार आई थी। वह सोचने लगी कि यदि वह भयानक स्वप्न न देखती को उसे कौन इस प्रकार से अपनी बांहों में लेता। वह धीरे-धीरे बोली, ‘दीपक, यदि तुमने मुझे मरने न दिया तो मैं भी कुछ दिन बाद तुम्हें एक ऐसा शुभ समाचार सुनाऊंगी कि तुम प्रसन्नता से फूले नहीं समाओगे।’
‘अच्छा, अब सो जाओ। रात बहुत हो चुकी है।’ दीपक ने यह कहकर लिली को बिस्तर पर लिटा दिया और वह स्वयं अपने बिस्तर पर जाने लगा। लिली ने उसका कुर्ता खींचते हुए कहा, ‘अभी न जाओ, मुझे डर लगता है।’
‘पगली कहीं की! पास ही तो सो रहा हूं।’ यह कहकर पास की चारपाई के पास गया जहां कुसुम सो रही थी। जाली का कपड़ा उसके मुख पर डालता हुआ बोला, ‘लिली, कितनी बार कहा कि रेशमी फ्रॉक बच्चे को रात को नहीं पहनाते। देखा न, आग-सी निकल रही है। रेशम में और ऊपर से यह गरमी।’
‘फिर कभी ऐसा न होगा।’
दीपक अपने बिस्तर पर लेट गया। लिली ने चाहा उसकी आंख लग जाए परंतु उसकी आंखों में नींद कहां, यह सोचकर प्रसन्न हो रही थी कि दीपक बच्चों का कितना ध्यान रखता है और वह उसे कुछ दिनों बाद यह शुभ समाचार और उसका मन चुटकियां लेने लगा। आज उसने उससे यह कह दिया। लिली ने शर्माकर अपना मुंह तकिए में छिपा लिया.....।
और शुभ समाचार के लिए अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। वह दिन आ ही पहुंचा जब लेडी डॉक्टर ने धीरे-से कमरे के किवाड़ खोले। दीपक उसे आश्चर्य भरी दृष्टि से देख रहा था। वह मुस्कराकर बोली, ‘दीपक बाबू, बधाई हो! लड़का हुआ है!’
‘लिली कैसी है?’
‘सब ठीक है।’
लेडी डॉक्टर ने देखा कि यह शुभ समाचार सुनकर दीपक के मुख पर कोई विशेष प्रसन्नता न आई। उसने सोचा शायद शरमाता है, ‘आप अंदर जा सकते हैं।’ उसने मुस्कराते हुए कहा।
कोई बात नहीं। दीपक यह कहते हुए दूसरे कमरे में चला गया।
इस प्रकार बीस दिन बीत गए, परंतु दीपक बच्चे को न देखने गया। लिली ने यह सब देखा और सिटपिटा-सी गई। फिर क्रोध में भर उठी और दीपक के पास पहुंची। दीपक ने उसे देखकर मुंह फेर लिया।
‘क्या पूछ सकती हूं कि यह बेरुखी क्यों है?’
‘लिली मैं कुछ दिनों से परेशान हूं, मुझे अकेला छोड़ दो।’
‘यह तुम्हें क्या होता जा रहा है? आखिर मैं भी कोई हूं। मुझे भी पता चलना चाहिए।’
‘तुम्हें अब यह पूछने का अधिकार नहीं रहा।’
दीपक का यह उत्तर सुनते ही लिली का सिर चकरा गया। वह फिर संभली और बोली, ‘मेरा अधिकार तो समाप्त हो गया परंतु उस अबोध बालक का क्या अपराध है जिसे तुमने अपनी गोद में अभी तक नहीं लिया? भला ऐसे कठोर हृदय पिता भी होते हैं?’
‘तुम सच कहती हो। एक पिता को इतना कठोर हृदय न होना चाहिए। आज्ञा हो तो बुलाऊं इसके पिता को।’
‘दीपक!’
‘ठीक कह रहा हूं। बधाई तो अवश्य आई थी परंतु बेचारा स्वयं चलकर न आ सका। शायद लंगड़ी टांग से यह चढ़ाई नहीं चढ़ सकता।’
लिली स्तब्ध रह गई। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे लगा, अब वह एक क्षण भी अपने को संभाल न सकेगी। वह गिर पड़ी और बेहोश हो गई।
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