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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘भाई बीमार पड़ा हो तो बहन उसे देखने भी न आए।’

‘तो फिर इतने दिनों के बाद क्यों?’

‘आज ही टॉम से पता चला और आज ही देखने चली आई।’

‘तो क्या दीपक ने इसके बारे में तुमसे कुछ नहीं कहा?’

‘नहीं तो। हो सकता है भूल गए हों।’

‘तो क्या अब अकेली आई हो?’

‘पहले आप यह बताएं कि तबियत कैसी है और चोट कैसे आई?’

‘परंतु मेरे प्रश्न का उत्तर पहले मिलना चाहिए।’

‘वह तो आप जानते ही हैं।’

‘तो तुम दीपक की आज्ञा के बिना मुझे देखने आई हो?’

‘जी।’

‘यह तुमने अच्छा नहीं किया, लिली।’

‘और करती भी क्या? आप ही बताइए, क्या वह मुझे आपको देखने के लिए यहां आने की आज्ञा देते?’

‘शायद नहीं।’

‘तो फिर?’

‘तुम्हें न आना चाहिए था।’

‘पर पता लगने पर मैं किस प्रकार रह सकती थी?’

‘परंतु तुम्हें मेरे जीवन से अधिक मान अपने कर्त्तव्य का करना चाहिए।’

‘तो क्या यह मेरा कर्त्तव्य नहीं था?’

‘यह कर्त्तव्य नहीं, जो धर्म से गिरकर किया जाए।’

‘तो अब क्या करूं? अब तो मैं यहां आ चुकी हूं।’

‘तुम इसी समय वापस लौट जाओ। देखो... चार बज रहे हैं, दीपक के आने से पहले घर पहुंच जाओगी। तुम नहीं जानतीं कि छोटी-छोटी बातें कभी-कभी एक तूफानी रूप धारण कर लेती हैं।’

‘चली जाती हूं। अभी तो आ रही हूं।’

लिली यह कहकर बैठ गई और थोड़ी देर बाद बोली, ‘क्यों चोट बहुत तो नहीं आई?’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।’ शंकर ने अपने पैर से कंबल हटाकर लिली को दिखाते हुए उत्तर दिया। पैर पर पट्टी बंधी थीं।

लिली ने फिर कहा, ‘कहो तो कुछ बना दूं, कोई नरम पदार्थ?’

‘धन्यवाद। नौकर बना ही लेता है।’

‘नौकर क्या बनाएगा। मैं बनाकर लाती हूं।’ यह कहकर लिली उठी और चादर उतारकर कुर्सी पर रख दी, ‘कहो क्या बनाऊं?’

‘लिली, मुझे संतोष तभी होगा जब तुम समय पर घर पहुंच जाओगी। देखो घड़ी की सुइयां कितनी तेजी से बढ़ी जा रही है।’

लिली यह सुनकर रुक गई और कुर्सी से चादर उठाकर बोली, ‘अच्छा तो मैं चलती हूं।’

शंकर को ऐसा जान पड़ा मानों लिली क्रुद्ध हो। उसने लिली को आवाज दी परंतु वह न लौटी और मकान से बाहर निकल गई। बाहर निकलते ही उसने एक नजर अस्तबल की ओर डाली। घोड़े उदास खड़े बाहर झांक रहे थे।

सायंकाल के छः बजे तक जब लिली घर न पहुंची तो दीपक घबराया। वह हैरान था कि बच्ची को अकेला छोड़कर वह कहां चली गई। उसने हरिया से पूछा परंतु हरिया से वह कुछ कहकर नहीं गई थी। इस समय वह अकेली जा भी कहां सकती है! हो सकता है कि कहीं से शंकर का पता चल गया हो और वहां चली गई हो परंतु उसको इतना साहस कैसे हुआ। वह सीधा शंकर के घर पहुंचा और अस्तबल में जाकर टॉम को आवाज दी, ‘टॉम जरा अंदर से पता लगाना कि लिली तो वहां नहीं आई?’

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