ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
उस दिन के पश्चात् शंकर कभी उस ओर न आया। लिली अब ठीक हो चुकी थी। उसके घाव भऱ चुके थे और किसी प्रकार का कष्ट अब उसे न रहा था। वह फिर चलने-फिरने योग्य हो गई। परंतु घाव उसके मुख पर निशान छोड़ गए। जब वह शीशे के सामने जाती तो अपना चेहरा देखकर उसकी आंखों में आंसू उमड़ आते।
‘शंकर तुम्हें अच्छा लगता है ना?’
‘अच्छे आदमी तो सबको अच्छे लगते हैं।’
‘परंतु अब वह तुमसे घृणा करता है इसलिए तुमसे दूर भागता है।’
‘क्यों?’लिली ने आश्चर्य से पूछा।
‘इसका उत्तर तो शीशा ही भली प्रकार दे सकता है।’
‘दीपक, ऐसी जली-कटी बात करने से क्या लाभ? तुम मुझे जो चाहे कह लो परंतु उन्हें गलत समझने का प्रयत्न न करो। वह मनुष्य नहीं देवता हैं।’
‘क्यों नहीं? दिल ही तो है, जिसे चाहे दानव बना दे, जिसे चाहे देवता।’
‘मैं तुम्हें किसी प्रकार समझाऊं, अपना विश्वास जो खो बैठी हूं।’
‘लिली, फिर भी मैं प्रसन्न हूं कि तुम्हारे हृदय में किसी के लिए तो सच्ची सहानुभूति उत्पन्न हो सकी।’
दीपक की ऐसी बातें सुनकर लिली रो पड़ती, परंतु अब वह आवेश में न आती। वह मौन रहती। टॉम घोड़े पर सवार हो उधर से निकला। लिली ने उसे देखते ही पहचान लिया और आवाज दी। लिली की आवाज सुनते ही उसने घोड़े का मुंह मोड़ दिया और पास आकर घोड़े से उतर पड़ा।
‘हैलो टॉम, मैं सोच रही थी कि कहीं पहचानने में भूल न हुई हो।’
‘देखे भी तो बहुत समय हो गया है, क्या बात है? आजकल आपने घुड़सवारी छोड़ दी है।’
‘ऐसे ही, कुछ तबियत ठीक नहीं रहती।’
‘शंकर बाबू कहते थे जब से काले घोड़े पर से गिरी हैं, डर-सी गई हैं।’
‘नहीं, ऐसी कायर तो नहीं हूं। हां, तुम्हारे शंकर बाबू बहुत दिन से दिखाई नहीं दिए। कहीं बाहर तो नहीं चले गए।’
‘वह तो कुछ दिन से बिस्तर पर हैं। आपको पता नहीं?’
‘नहीं तो, क्या बात है?’
‘घोड़े पर से गिर पड़े थे। उनकी टांग में बहुत चोट आई है।’
‘कब?’
‘आज तीसरा दिन है।’
‘हमें तो कोई सूचना नहीं मिली। वास्तव में जमींदार साहब भी तो आज चार दिन से उस ओर नहीं गए।’
‘वह तो जानते हैं। चोट लगने के समय वह भी उसी ओर ही थे।’
‘हो सकता है कि भूल गए हों।’
‘भला यह भी कोई भूलने की बात थी। अच्छा मैं चलता हूं। देर हो रही है। उनके पास कोई नहीं है।’
यह कहकर टॉम घोड़े पर बैठ गया और एड़ लगा थोड़ी ही देर में ढलान से उतर गया। लिली बहुत समय तक वहीं स्थिर खड़ी सोचती रही और फिर कुसुम को साथ लेकर जल्दी से हवेली में लौट आई।
दीपक का ध्यान आते ही वह सहम-सी जाती। वह क्या करे? प्रत्येक पल उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। आखिर उसने जाने का निश्चय किया। वह उठी, अलमारी से चादर निकालकर ओढ़ी और कुसुम को हरिया को सौंप स्वयं तेजी से पग बढ़ाती शंकर के घर पहुंची। शंकर बिस्तर पर लेटा समाचार पत्र पढ़ रहा था। लिली को देखकर उसे आश्चर्य हुआ और बोला, ‘लिली, तुम कैसे?’
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