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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

12

‘क्यों, अब तबियत कैसी है लिली की?’ शंकर ने बरामदे में पैर रखते ही दीपक से पूछा। दीपक ने उत्तर नहीं दिया। शंकर उत्तर न पा, आगे बढ़कर लिली के कमरे में चला गया। लिली सामने ही पलंग पर लेटी हुई थी। उसके सिर और हाथ पर पट्टी बंधी थी।

‘कैसी तबियत है, लिली?’

‘अब तो कुछ आराम है।’

‘बैठे-बिठाये मुसीबत आ गई।’

‘कोई बात नहीं भैया! वह इसी में प्रसन्न हैं तो ऐसा ही सही।’

‘लिली, तुम कितनी बदल गई हो।’

‘सब आपकी कृपा है।’

शंकर मुस्करा दिया और बोला, ‘लिली, मनुष्य में दुर्बलता तो पहले से ही होती है, केवल उसे अपने अधिकार में लाना ही उसकी विजय है।’

‘परंतु अभी तक तो मैं हारी हुई हूं।’

‘तुम्हारी यह हार ही तुम्हारी जीत है। अच्छा अब मैं चलता हूं।’

शंकर जब बरामदे में पहुंचा तो दीपक पहले से ही वहां उपस्थित था और बरामदे में चक्कर लगा रहा था। शंकर बरामदे में खम्भे के पास खड़ा हो गया और चुपचाप उसे देखने लगा। दीपक क्रोधित था।

‘क्यों, देख आए?’ दीपक ने पूछा।

‘हां, विचार तो कुछ ऐसा ही है।’ शंकर ने हंसते हुए उत्तर दिया।

शंकर के इस उत्तर से दीपक का पारा और भी चढ़ गया और वह बरामदे में तेजी से चक्कर काटने लगा।

‘दीपक, यदि आज्ञा हो तो एक बात पूंछू?’

‘कहो।’ दीपक ने शंकर के पास आते हुए कहा।

‘आजकल तुम्हारे मन में एक अजीब विकलता देख रहा हूं। क्या यह पूछ सकता हूं कि इसका कारण क्या है?’

‘क्यों नहीं, प्रत्येक मित्र का यह कर्त्तव्य होता है कि वह दूसरे मित्र के दुःख को अपना दुःख समझे और उसकी सहायता करे।’

‘तो प्रतिज्ञा करते हो कि सहायता करोगे?’

‘क्यों नहीं?’

‘तो सुनो, मेरी वेदना और विकलता का कारण तुम हो।’

‘मैं?’

‘हां, और यदि तुम चाहते हो कि मैं सुख-चैन से जीवन व्यतीत करूं तो भविष्य में कभी इस हवेली में न आना।’

‘तुम यही चाहते हो तो ऐसा ही होगा।’ शंकर ने अपना सिर झुकाते हुए कहा और ड्योढ़ी की ओर जाने लगा। यह सब सुनने पर भी उसके चेहरे पर कोई विशेष परिवर्तन न आया था। मानों यह सब कुछ पहले से ही जानता हो। कुछ दूरी पर शंकर रुका और फिर दीपक के निकट आकर बोला, ‘यदि कोई विशेष आपत्ति न हो तो कारण भी बता दो। मुझको कुछ तो संतोष होगा।’

‘अनजान बनने का प्रयत्न न करो। इसका कारण मुझसे अधिक तुम स्वयं जानते हो।’

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