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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी। सामने की खिड़की खुली थी। नीले आकाश पर तारे आंख-मिचौनी खेल रहे थे, परंतु उनके संकेतों को चंद्रमा की सुंदर चांदनी ने फीका कर दिया था। वह उठी और खिड़की के पास जा खड़ी हुई और बाहर की ओर देखने लगी। रात्रि के अंधकार में समुद्र के जल पर बिखरी चांदनी उसे बहुत ही भली लग रही थी। अचानक किसी के पांवों की आहट सुनाई दी। किसी ने धीरे-से कमरे में प्रवेश किया और दरवाजे में चिटकनी लगा दी। लिली संभली, शरमाई और मुंह दूसरी ओर फेरकर बाहर बिखरी हुई चांदनी को देखने लगी। आगन्तुक धीरे-धीरे पैर बढ़ाता लिली के समीप पहुंच गया। लिली ने लज्जा से सिर झुका लिया।

‘यह सब हमसे शर्म कैसी?’दीपक ने उसके सिर से घूंघट उतार दिया और उसका मुख अपनी ओर कर लिया। अभी तक लिली की आंखों में दो आंसू जमे हुए थे।

‘मायके की याद सता रही है क्या?’

लिली रो पड़ी। दीपक ने उसके हाथों से रूमाल लेकर उसके आंसू पोंछे और बोला, ‘अब भूल जाओ बीती बातों को, जो होना था वह हो चुका।’

‘दीपक, मुझे उन बातों का कोई दुःख नहीं, परंतु हमारे बीच में अब जो घृणा का पर्दा सा पड़ गया है क्या वह हमारे भावी जीवन पर कोई प्रभाव न डालेगा?’

‘यदि हम दोनों चाहे तो सब ठीक हो सकता है।’

‘वह कैसे?’

‘पिछली सब बातें भुलाकर।’

‘परंतु तुम्हारे दिल में तो अब भी वही हठ है।’

‘मुझे गलत समझने का प्रयत्न न करो। तुम सोच रही होगी कि मैं डैडी के कहने पर भी तुम्हें यहां ले आया। उनका कहना भी ठीक था कि मैं तुम्हारी कोठी में रहूं।’

‘तुम्हें मेरी डैडी की ओर से....।’

‘कोई शिकायत नहीं।’ दीपक ने बात काटते हुए कहा, ‘यही पूछना चाहती थीं ना? छोड़ो उन बातों को। देखो, सामने चांदनी समुद्र की लहरों से मिल-मिलकर क्या संदेश सुना रही है, इस नए स्थान को देखकर तुम्हारे हृदय में जो झिझक, भय और लज्जा है वह नई दुल्हन का वास्तविक आभूषण है। दुःख केवल इस बात का है कि तुम अपनी ससुराल में अकेली हो।’ लिली ने देखा कि दीपक की आंखों में दो आंसू चमक उठे। वह उसके कुर्ते पर लगे बटन से खेलती हुई बोली, ‘दीपक जब तुम हो तो मुझे कोई कमी नहीं है। मेरा संसार तो तुम ही हो।’

‘यदि ऐसा समझती हो तो मेरा सौभाग्य है।’ दीपक ने लिली को अपनी बांहों में भर लिया। लिली भी आज निःसंकोच आज दीपक के वक्ष से लिपट गई। छोटी-छोटी बदलियों ने थोड़ी-सी देर में घटा का रूप धारण कर लिया और चांद को अपने आंचल में छिपा लिया। चारों ओर घना अंधकार छा गया। लिली भागकर अपने पलंग पर जा लेटी। दीपक ने लपककर उसे रोकना चाहा परंतु उसके हाथ में केवल उसका दुपट्टा ही रह गया। उसने दुपट्टा एक ओर फेंक दिया और पलंग पर लिली के निकट जाकर बैठ गया।

हवा तेज होती गई। समुद्र की लहरें गर्जना-सी कर रही थी। खुली हुई खिड़की के किवाड़ जोर-जोर से बज रहे थे परंतु उन दोनों का ध्यान इस ओर न था।

पूर्व दिशा में दिनकर ने झांका। अंधेरा पेड़ों के नीचे जा छिपा। सूर्यदेव की किरणें खिड़की के मार्ग से कमरे में आने लगीं। पर वे दोनों पलंग पर बेसुध पड़े थे। लिली का सिर दीपक की छाती पर था। दीपक की आंख खुली तो उसने घड़ी की ओर देखा। आठ बज रहे थे। दिन चढ़ चुका था। लिली अभी तक सो रही थी। वह लिली की नींद खराब नहीं करना चाहता था, परंतु अपनी छाती पर से जब वह उसका सिर उठाएगा तो वह अवश्य जाग जाएगी। यह सोचकर वह उसी प्रकार लेटा रहा। पलंग पर बिखरे हुए फूल मुरझा चुके थे। फूलों के बिखरे जाल के बहुत-से धागे टूट चुके थे।

दीपक ने उसके बालों को अपनी उंगलियों में लपेटना शुरु कर दिया और धीरे-से बोला.... ‘लिली!’

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