ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘दीपक अब अच्छा यही है कि तुम हमारे रास्ते से हट जाओ।’ सेठ साहब ने कहा।
‘इतनी आसानी से!’
‘शामू कार चलाओ!’
‘शामू एक मिनट ठहरना। डैडी, यदि आज्ञा हो तो एक निवेदन कर दूं।’ दीपक बोला।
‘क्या?’
‘एक बार डिब्बा और लिफाफा खोलकर देख लीजिए कि सारे कागज उसमें आ गए या नहीं?’
सेठ साहब ने पहले दीपक के चेहरे को देखा और फिर जल्दी से डिब्बे का ढकना उतार दिया। लिफाफे में से कागज निकाले तो होटल वाले पुराने बिल निकले। सेठ साहब के चेहरे का रंग उड़ गया। दीपक अभी तक मुस्करा रहा था।
‘चार सौ बीस।’ सेठ साहब के मुंह से धीरे-से निकला।
‘परंतु अपने गुरु से कम।’
लिली अब तक मोटर में बैठी यह सब देख रही थी। उसका चेहरा पीला-सा पड़ गया था।
‘अच्छा नमस्ते।’ यह कह दीपक होटल की ओर मुड़ा।
‘दीपक।’ लिली ने आवाज दी। दीपक मुड़ा और उसके पास आकर बोला. ‘आज्ञा है?’
‘आखिर जीत तुम्हारी ही हुई।’
दीपक ने देखा, लिली की आंखों में आंसू थे। इसके पहले कि दीपक उत्तर दे, शामू ने कार चला दी।
दीपक सड़क के किनारे खड़ा का खड़ा रह गया।
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