ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
रात को उन्होंने लिली को अपने पास बुलाकर सब किस्सा कह सुनाया। उन बातों का आज तक लिली को कुछ पता न था। वह भी उनके साथ उलझन में पड़ गई। अब क्या होगा। वह तो दीपक को एक दुर्बल युवक समझती थी। परंतु वह तो एक पर्वत बनकर सामने खड़ा हो गया। दोनों बाप-बेटी देर तक सोचते रहे परंतु कुछ सूझ नहीं पड़ा। चारों ओर अंधेरा था। लिली बोली, ‘चाहे कुछ भी क्यों न हो, हम ‘सोसायटी’ में बदनामी सहन कर लेंगे परंतु अपने आपको कानून का हाथों में कभी न सौंपेगे। बिरादरी की बदनामी तो दो-चार दिन तक सब भूल जाएंगे। परंतु जमा हुआ कारोबार फिर से कभी न संभल सकेगा। रुपया है तो आदर उनके चरण चूमेगा और यदि यही न रहा तो यह बिरादरी उन्हें क्या दे देगी?’
उधर दीपक दूसरे दिन की प्रतीक्षा में था। जब संध्या हुई तो वह तैयार होकर अपने कमरे में बैठ गया। होटल की सीढ़ियों पर तनिक-सी आहट होती या मोटर का कोई हार्न बजता तो दीपक उठकर खिड़की के बाहर झांकता परंतु निराश होकर कुर्सी पर आ बैठता। धीरे-धीरे पैरों की आवाज उसके कमरे के पास आकर रुक गई और किसी ने दरवाजा खटखटाया। दीपक ने लपककर दरवाजा खोला तो लिली को सामने खड़ा पाया।
‘लिली तुम? आओ।’
लिली अंदर आ गई और दीपक के पीछे से दरवाजा बंद कर दिया। लिली कुर्सी पर बैठ गई।
‘यह भी अच्छा हुआ कि डैडी ने उत्तर तुम्हारे हाथों भेज दिया।’ दीपक ने लिली के चेहरे की ओर देखते हुए कहा। लिली ने कमरे के चारों ओर एक सरसरी दृष्टि डाली और उत्तर दिया, ‘जी।’
‘फिर तो मुंह मीठा कराने के लिए कुछ मंगाऊ?’
‘दीपक, क्या अभी तक तुम्हारे हृदय में मेरे लिए स्थान है या केवल अपनी हठ ही पूरा करना चाहते हो?’
‘लिली, तुम चाहे मेरी ओर से ध्यान हटा लो, परंतु दीपक से लिली को कोई पृथक नहीं कर सकता। तुम्हारे लिए तो मेरे हृदय के द्वार सदा के लिए खुले हैं। ये दो आंखें तो तुम्हारी प्रतीक्षा करते-करते थक चुकी हैं।’ दीपक कुर्सी के बाजू पर बैठ गया और लिली के बालों को छेड़ने लगा।
‘देखो, इस प्रकार किसी के बालों को छेड़ना ठीक नहीं।’ यह कहकर लिली कुर्सी से उठी और खिड़की में जा खड़ी हुई। दीपक भी उसके पीछे जा खड़ा हुआ और बोला, ‘लिली देखो, सामने समुद्र में लहरें किस प्रकार तट से मिलने के लिए लालायित हैं।’
‘मिलने जा रही हैं या टकरा-टकराकर वापस लौट रही हैं?’
‘टकराएं या आकर मिलें, मतलब तो एक ही है।’ दीपक फिर लिली के बालों से खेलने लगा।
‘मैंने कहा ना, किसी लड़की के बालों से खेलना नहीं चाहिए।’
‘क्या दोष है?’
‘लड़की अपनी सुध-बुध खो बैठती है।’
‘मैं भी तो यही चाहता हूं कि तुम मुझमें खो जाओ।’ उसने बाल पकड़कर लिली का चेहरा अपनी ओर कर लिया और उसकी आंखों में आंखें डाल दीं। लिली की आंखों में वह चंचलता और उसके चेहरे पर वही आभा थी जो दीपक का सर्वस्व लूटकर ले गई थी। उसने अपनी बांहें लिली की कमर में डाल दीं और उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘लिली कभी-कभी मुझ पर यह जंगलीपन-सा सवार हो जाता है। बुरा तो नहीं मान रही?’
लिली ने तीखी नजरों से देखते हुए उत्तर दिया, ‘चलो हटो।’ और दीपक के पलंग पर जा लेटी। उसके होंठों पर अर्थभरी मुस्कान थी। दीपक उसके बालों से खेलने लगा। लिली के बालों की सुगंध से दीपक पर नशा-सा छा गया। उसने अपनी नाक लिली के बालों पर रख दी और उसके बालों को चूम लिया।
‘लिली, तो क्या मैं अब समझ लूं कि डैडी और तुमने मेरे ही पक्ष में निर्णय किया है?’
‘निर्णय चाहे जो हो परंतु तुमने ऐसा क्यों किया?’
‘इसके अतिरिक्त तुम्हें पाने का और कोई उपाय भी तो न था।’
‘तुम तो कहते हो कि तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है?’
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