ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘ओह, आप यहां!’ दीपक बोला।
‘हां, मुझे तुमने आवश्यक काम है।’
‘आपने इतना कष्ट क्यों किया। आदेश भेज देते, मैं स्वयं ही वहां पहुंच जाता।’
‘मैं यहां किसलिए आया हूं यह तो तुम समझ ही गए होगे?’
‘जी मैं समझता हूं और मुझे विश्वास था कि आप अवश्य आयेंगे। क्रोध शांत होने के बाद ही मनुष्य हर ओर से भली प्रकार सोच-विचारकर किसी निश्चय पर पहुंच सकता है।’
‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।’
‘अनजान बनने का प्रयत्न न करो। मेरे सब कागज और रजिस्टर कहां है? अलमारी तो खाली है।’
‘वे मेरे पास सुरक्षित रखे हैं।’
‘कहां?’ उन्होंने कमरे में दृष्टि दौड़ाते हुए पूछा।
‘इस कमरे में नहीं है।’
‘मैं यह नहीं जानता था कि तुम इतने चालाक भी हो।’
‘आखिर आपसे ही तो शिक्षा पाई है।’
‘इन लंबी-चौड़ी बातों को रहने दो और सब कागज मुझे सौंप दो।’
‘बहुत खूब! आखिर आप लोगों ने मुझे समझ क्या रखा है?’
‘क्यों? क्या बात है?’
‘आप लोगों ने समझ लिया होगा कि आसानी से यह कांटा आपके मार्ग से हट गया है, परंतु यह न भूलें कि आप एक पथरीली चट्टान से टकरा रहे हैँ।’
‘आखिर उन कागजों में रखा ही क्या है जो तुम....।’ यह कहते-कहते सेठ साहब रुक गए। उनकी सांस फूल रहा थी।
‘मेरा जीवन और आपकी मृत्यु।’
‘वह कैसे?’
‘यदि वे कागज मैं पुलिस को सौंप दूं तो जानते हैं कि क्या होगा?’
‘मैं अच्छी तरह जानता हूं, परंतु मैं यह न जानता था कि तुम समय आने पर इतने नीच भी हो सकते हो।’
यदि आप धन पाने के लिए इतना नीच काम कर सकते हैं, ‘इन्कमटैक्स’ बचाने के लिए झूठे हिसाब रख सकते हैं तो क्या मैं लिली को प्राप्त करने के लिए कोई ऐसा मार्ग नहीं अपना सकता?
‘परंतु इसके लिए इतना गिरने की क्या आवश्यकता है?’
‘घी कभी सीधी उंगली से नहीं निकलता।’
‘लिली।’
‘क्या इसके बिना और कोई रास्ता नहीं?’
‘जी नहीं।’
‘मैं सागर के पिता से कह चुका हूं। यह मेरी इज्जत का सवाल है।’
‘मैं विवश हूं।’
‘बहुत अच्छा। कल इसी समय शाम को मेरा उत्तर मिल जाएगा।’ यह कहकर सेठ साहब बाहर निकल गए। दीपक भी उनके पीछे-पीछे गया और बोला, ‘जल्दी क्या है? ठहरिए, चाय मंगवाता हूं।’
‘इसकी आवश्यकता नहीं।’
सेठ साहब कार में बैठकर सीधे घर पहुंचे। वह बहुत चिंतित थे।
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