ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
एक दिन दीपक काम से लौटकर अपने कमरे में आया तो क्या देखता है कि उसका सब सामान, बिस्तर, ट्रंक आदि बंधा पड़ा है। पहले तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ, परंतु दूसरे ही क्षण वह क्रोधित हो उठा था। इतने में जमींदार साहब कमरे में आ गए। दीपक कुछ घबरा-सा गया और उसने सिमटकर मुंह नीचे कर लिया।
‘क्यों दीपक, तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों पीला पड़ गया?’
जमींदार साहब की आवाज में काफी नरमी देखकर दीपक ने अपना चेहरा ऊपर उठाया और इतना ही बोल पाया-
‘नहीं, परंतु यह सब....।’
‘तुम्हारा ही असबाब है। तुम आज रात की गाड़ी से बंबई जा रहे हो, अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मेरी आज्ञा से।’
‘परंतु इतनी जल्दी....।’
‘किंतु परंतु मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। जल्दी से मुंह-हाथ धो लो, जो आवश्यक वस्तुएं ले जानी हैं बांध लो। खाना तैयार करने के लिए कह दिया है। समय कम है और काम अधिक। मुनीमजी और हरिया गाड़ी पर बिठा आवेंगे।’
दीपक प्रसन्नता से फूला न समाया। वह समझ न सका कि यह सब स्वप्न था या सत्य। उसकी आंखों में प्रसन्नता के आंसू थे।
शीघ्र ही वह तैयारी करने में लग गया। मुनीमजी और हरिया उसका हाथ बंटाने लगे। जैसे-जैसे दीपक के जाने का समय निकट आता था जमींदार साहब का दिल बैठता जाता। पंरतु उन्होंने कोई ऐसा भाव अपने मुख पर न आने दिया।
अंत में समय आ ही पहुंचा। स्टेशन गांव से कोई चार कोस की दूरी पर था। जाना भी जल्दी था। हरिया सारा सामान लेकर नीचे सड़क पर जा चुका था। जमींदार साहब ने सौ-सौ के पांच नोट दीपक को देते हुए कहा-
‘इन्हें सावधानी से बॉक्स में रख लेना और मुनीमजी, यह लीजिए, आप टिकट लेकर बाकी पैसे दीपक को दे देना।’
‘पिताजी यदि जीवन भी लगा दूं तो भी आपका एहसान नहीं चुका सकता, फिर भी यदि नाचीज किसी काम आ सके तो अवश्य आदेश दीजिएगा।’
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