ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘परंतु पिताजी, मैं जलवायु की तबदीली या अपना दिल बहलाने के लिए नहीं जा रहा हूं। मैं एक लंबी अवधि के लिए जाना चाहता हूं।’
‘ऐसी कौन-सी आवश्यकता आ पड़ी?’
‘अपना भविष्य बनाने की।’
‘भविष्य! तो यहां तुम्हें कौन-सा भिखारियों का जीवन बिताना पड़ रहा है, जो अपने भविष्य की चिंता हो रही है?’
‘भविष्य से मेरा मतलब....।’
‘मैं सब समझता हूं तुम्हारा मतलब...।’ क्रोध में जमींदार साहब बोले। ‘नहीं पिताजी, ऐसी कोई बात नहीं। आप दूसरा विचार मन में न लाइए। मैं तो किसी जगह जाकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं ताकि इस संसार की वास्तविकता को जान सकूं।’
‘जवानी में एक नशा होता है। युवक चाहते हैं कि अपनी भावनाओं के भेद जान लें और ऐसे वातावरण में जाकर रहे जहां सब लोग उनकी इच्छाओं को समझ सकें और प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करें, परंतु दूर से चमकने वाली प्रत्येक वस्तु सदा सोना नहीं होती।’
‘परंतु यह भी तो हो सकता है कि वह सोना ही हो। आप ही सोचिए, यदि मैं यह काम शहर में जाकर बढ़ा लूं तो एक अच्छा-खासा व्यापार खुल सकता है, सौ-दो-सौ मनुष्य काम पर लग सकते हैं, हजारों भूखों का पेट भर सकता है। उसमें नाम है, पैसा है, आदर है।’
‘मुझे झूठे नाम और आदर की कोई इच्छा नहीं।’
‘परंतु आपका यह कर्त्तव्य तो है कि आप अपने बच्चे के जीवन को सुखी बनाने के लिए उसकी सहायता करें।’
‘कर्त्तव्य! मां-बाप का कर्त्तव्य! संतान का भी तो कुछ कर्त्तव्य है?’
‘मैं अपने कर्त्तव्य का पालन करने से कब इंकार करता हूं? मैंने तो केवल अपनी इच्छा प्रकट की है।’
‘तुम्हारे जीवन का तो अभी प्रभात है और इच्छाएं पूरी होने को बहुत समय है परंतु जिसके जीवन की संध्या निकट आ गई है उसके दिल के अरमान उसके साथ ही समाप्त हो जाएं, क्या यही है तुम्हारा कर्त्तव्य?’
‘परंतु यहां तो मेरी विशेष आवश्यकता नहीं। काम तो चल ही रहा है। यदि इस दौरान मैं कुछ....’
जमींदार साहब बात काटते हुए क्रोध से बोले-
‘तुम जहां चाहे जा सकते हो, मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं। मैं समझूंगा कि मेरा बेटा था ही नहीं। पराई वस्तु को कितना भी अपना बनाकर रखो फिर भी पराई है।’ कहते हुए जमींदार साहब कमरे से बाहर निकल गए।
दीपक की आंखों में आंसू उमड़ आए। वह कभी स्वप्न में भी न सोच सकता था कि जमींदार साहब उसको गलत समझेंगे। जमींदार साहब के शब्द रह-रहकर उसके हृदय में हलचल-सी पैदा कर देते। भांति-भांति के विचार उसके हृदय में उदय-अस्त होने लगे।
इसी प्रकार चार दिन बीत गए। न तो जमींदार साहब ने दीपक को बुलाया और न ही उसने सामने आने का साहस किया। दीपक अपने मिथ्या विचारों का शिकार बना बैठा था और जमींदार साहब अपने हठ के, परंतु एक ही घर में यह खिंचाव कितने दिन और चल सकता था!
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