ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘आखिर तुम भी तो मेरे ही हो। लिली के चले जाने के बाद मेरा है ही कौन?’
‘उसे क्या आपत्ति हो सकती है? लड़का अच्छा है, धन है, मान है और क्या चाहिए उसे?’
‘परंतु लड़िकयां अपनी इच्छा की होती हैं। एक बार उससे पूछ तो लेना चाहिए। पर पूछे कौन? घर में मेरे सिवाय है कौन और मैं कैसे पूछूं। दीपक तुम तो लिली से बहुत खुले हुए हो।’
‘आपका मतलब?’
‘यही कि बहन-भाई आपस में हंसी करते ही रहते हैं और हंसी-हंसी में तुम उससे पूछ सकते हो।’
‘और यदि उसे यह स्वीकार न हो तो....?’
‘तो मुझे क्या पड़ी है? मुझे तो उसकी प्रसन्नता ही चाहिए।’
‘प्रयत्न करूंगा।’ दीपक ने उत्तर दिया।
सेठ साहब उठकर दूसरे कमरे में चले आए। दीपक ने जैसे-तैसे एक चपाती खाई और हाथ धोकर अपने कमरे में जाकर लेट गया।
तो लिली की सगाई सागर से हो रही है! लिली को सागर पसंद है। यह सब सोचकर वह हंसने लगा। उसका हृदय रो रहा था। उसका संसार उसके सामने ही नष्ट हो रहा था। परंतु वह क्या करता और कर भी क्या सकता था! मनुष्य यदि अपनी इच्छा की वस्तु पा सकता तो पीड़ा का कोई अस्तित्व ही न रहता।
रात के कोई दो बजे होंगे, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। सब गहरी नींद का आनंद ले रहे थे। लिली अपने बिस्तर पर बेहोश सो रही थी कि अचानक किसी की आहट से चौंक-सी गई।
‘तुम? इस समय यहां?’
‘हां, मैं ही तो हूं।’
‘इतनी रात गए यहां क्या करने आए हो?’
‘घबराओ नहीं चोरी करने नहीं आया।’
‘और किसलिए....?’
‘लिली, मैंने सुना है कि सागर से तुम्हारी बात पक्की हो रही है?’ उसने पास आते हुए पूछा।
‘संभव है कि तुमने ठीक सुना हो।’
‘इसमें संभव की क्या बात है।’ डैडी कह रहे थे।
‘क्या डैडी की बात पर विश्वास नहीं जो पूछने आए हो?’
‘विश्वास तो है पर तुम्हारे मुंह से भी सुनना चाहता हूं।’
‘सुनना चाहते हो तो जो डैडी ने कहा है, ठीक है।’
‘तो तुम प्रसन्न हो?’
‘इसमें प्रसन्न होने की बात ही क्या है?’
‘लिली, इतनी क्रूर न बनो। मेरे प्रेम को इस तरह न ठुकराओ।’
‘मेरा तुम्हारे साथ कोई संबंध नहीं।’
‘मेरे प्रेम पर ध्यान दो।’
‘मेरे हृदय में तुम्हारे लिए न कभी प्रेम था, न है, न कभी होगा।’
‘तो क्या वह सहानुभूति और विश्वास सब मिथ्या थे?’
‘यदि मेरी सहानुभूति को तुम गलत समझ लो तो इसमें मेरा क्या दोष है? सहानुभूति तो एक मानवीय कर्त्तव्य है। सहानुभूति तो आवारा कुत्तों से भी की जा सकती है, तुम तो फिर भी....।’
‘लिली संभलकर बात करो, यह न भूलो कि मेरी भी इज्जत है।’
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