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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

7

दीपक और लिली के बीच अब एक दीवार-सी खड़ी हो गई थी। लिली को अब वह अपने से दूर समझने लगा। जब लिली उसे पसंद ही नहीं करती तो वह मूर्ख की भांति उसके पीछे क्यों पड़ा है? लिली ने कई बार प्रयत्न किया कि दीपक को बातों में लाकर फिर से मना ले परंतु दीपक इस बार उससे दूर-दूर ही रहा। निराश होकर लिली ने भी उपेक्षा प्रकट करनी आरंभ कर दी।

संध्या का समय था। दीपक घर लौटा तो लिली बरामदे में रैकेट लिए खड़ी थी। शायद वह खेलने जा रही थी। दीपक ने चाहा कि उसका सामना न हो। वह दूसरी ओर जाने लगा।

‘दीपक!’

लिली की आवाज ने उसे रोक दिया। वह दीपक के सामने आकर बोली, ‘क्यों, मेरे सामने आते भय लगता है जो सीधा रास्ता छोड़कर टेढ़े रास्ते जाने लगे? भयभीत तो मुझे होना चाहिए।’

‘तुम्हारी तरह निर्लज्ज तो नहीं बन सकता।’

‘तो बनने को कौन कहता है? तुम तो एक भले आदमी हो और भलाई अपना आभूषण मानते हो, फिर मुझ जैसी निर्लज्ज और चंचल लड़की से तुम क्या आशा रखते हो।’

‘तुमसे मुझे क्या-क्या आशाएं थीं परंतु...।’ वह मौन हो गया।

लिली ने बात काटकर कहा, ‘परंतु उस रात के दृश्य को देखकर अब जी भर गया और कोई इच्छा नहीं रही... यह कहना चाहते हो ना?’

‘मैं तुम्हारा अभिप्राय नहीं समझा।’

‘दीपक, मैं जानती हूं तुम्हें मुझसे घृणा हो गई है, होनी भी चाहिए। तुम मेरी सूरत भी देखना नहीं चाहते। मेरी केवल एक इच्छा है यदि मानो तो....।’

‘क्या?’

‘तुम मुझसे बोलना न छोड़ो। मैं तुमसे बोले बिना नहीं रह सकती। तुम जिस नाते से मुझे चाहते हो वह पूरा नहीं हो सकता और न अब तुम्हारे हृदय में उसके लिए कोई इच्छा ही शेष है परंतु मित्रता के नाते तुम मुझे नहीं छोड़ोगे।’

‘मित्रता! कैसी मित्रता।’

‘कम्पेनियनशिप।’

‘तुम कैसे जानती हो कि अब मेरे हृदय में तुम्हें पाने की कोई इच्छा नहीं रही?’

‘मुझे उस रात उस दशा में देखकर जो कोई भी होता, यही करता। क्या अब भी तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति कोई झुकाव है!’

‘हो सकता है।’

‘फिर तो मैं भाग्यवान हूं जो इतना होने पर भी तुम्हारे हृदय में मेरे लिए कुछ सहानुभूति है।’

‘ऐसा ही समझ लो। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण किसी के मन को ठेस पहुंचे। इस प्रयास में मेरा अपना अस्तित्व ही मिट जाए तो मुझे परवाह नहीं।’

‘दीपक, मुझे तुमसे यही आशा थी। जब तुम मेरा इतना ख्याल रखते हो तो मुझे एक वचन दो।’

‘कैसा वचन?’

‘कि तुम मेरे और सागर के रास्ते में न आओगे।’

‘मैं सागर से प्रेम करती हूं और मैं....’

‘मैं तुम्हारा दिल दुखाना न चाहती थी।’

‘बस लिली, बस! क्या तुम समझती हो कि इन बातों से मेरे हृदय को शांति मिल रही है?’

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