ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
|
5 पाठकों को प्रिय 239 पाठक हैं |
लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘न जाने अचानक पेट में कुछ दर्द-सा उठा और बढ़ता ही जा रहा है। अब तो सहन भी नहीं होता। लिली नहीं आई?’
‘उसे जगाने की क्या आवश्यकता है, मैं जो हूं।’
‘देखो, अलमारी में अमृतधारा रखी होगी, दो-चार बूंदें दे दो।’
दीपक ने अलमारी खोली और शीशियां टटोलने लगा परंतु दवा न मिली।
‘न जाने कहां रख दी। सौ बार कहा है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्थान पर होनी चाहिए। देखो, सामने दराज में तो नहीं?’ सेठ साहब ने कहा। वह दर्द से कराह रहे थे।
दीपक ने दराज खोला और अमृतधारा मिल गई। उसने दो-चार बूंदें पानी में मिलाकर सेठ साहब को पिला दी। दर्द कुछ घटा, पर थोड़ी देर बाद फिर होने लगा। दीपक ने दो-चार बूंदें अमृतधारा और पिला दी।
‘दीपक, मेरा विचार है कि गरम पानी की बोतल करके सेंक लूं।’
‘अभी पानी गरम करे देता हूं। बोतल कहां है?’
‘तुम्हें कष्ट होगा, जरा लिली को जगा दो।’
दीपक लिली के कमरे की ओर गया और वहां पहुंचकर उसने धीरे-से दरवाजा खटखटाया। कोई उत्तर न मिला। उसने कुछ जोर से खटखटाया। उत्तर इस बार भी न मिला। शायद गहरी नींद में सो रही हो, यह सोचकर वह अपने कमरे में गया, टार्च उठाई और बाहर खिड़की से लिली को आवाज दी। कोई उत्तर न पाकर उसने टार्च की रोशनी लिली के बिस्तर पर डाली। वह स्तब्ध खड़ा रह गया। लिली बिस्तर पर न थी। वह जा भी कहां सकती है इतनी रात गए? दरवाजा तो अंदर से बंद है। उसके रक्त की गति मानो बंद हो गई।
उसने अपनी उंगली काटी, अपनी आंखों को मला, अपने हाथों को रगड़ा और जब उसे विश्वास हो गया कि वह स्वप्न नहीं देख रहा तो उसने फिर कमरे में टार्च की रोशना डाली। कमरे में कोई न था। उसने घूरकर आगे-पीछे देखा, चारों ओर घना अंधकार था! दूर बाग में उसने किसी के पैरों की आहट सुनी। वह धीरे-धीरे उसी ओर बढ़ा। उसका हृदय धड़क रहा था। कुछ दूरी पर उसको एक छाया-सी दिखाई दी। उसने टार्च की रोशनी उसी ओर डाली। उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसके पैरों के नीचे से मानों जमीन खिसक गई हो।
|