ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
दीपक ने माथे से पसीना पोंछा। क्या यह सत्य है? क्या माला ने जो कुछ कहा था हंसी में कहा था? परंतु लिली का सागर के साथ इस प्रकार रात के समय अकेले बातें करना, वह भी क्या हंसीमात्र था? उसे इतने शक्की स्वभाव का न होना चाहिए। आखिर वह उसका मित्र है और आधुनिक युग में तो लड़कियों के मित्र होते ही हैं। बुराई भी क्या है? मित्रता, मित्रता है। प्रेम – प्रेम।
उसके मुख पर हल्की-सी चमक दौड़ गई। उसने सावधानी से लिफाफा बंद किया और लिली के कमरे की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर उसने धीरे-से दरवाजा खटखटाया।
‘अंदर आ जाओ।’ लिली ने आवाज दी।
दीपक धीरे से दरवाजा खोलकर अंदर आ गया। उसे शर्म सी आ रही थी और वह भयभीत हो रहा था कि न जाने लिली उसे देखते ही किस प्रकार का व्यवहार करेगी। लिली बिस्तर पर बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। उसे देखते ही बोली-
‘आओ दीपक।’
‘यह पत्र कोई यह कहकर दे गया कि लिली को दे देना।’
‘तुमने क्यों कष्ट किया? किशन के हाथ भिजवा देते अथवा मुझे वहीं बुलवा लेते।’ उसने पत्र को दीपक के हाथ से लेते हुए कहा और पत्र खोलकर पढ़ने लगा। पढ़ने के बाद फिर लिफाफे में डालते हुए बोली, ‘खड़े क्यों हो, आओ बैठ जाओ।’
दीपक कुर्सी पर बैठ गया।
‘वहां नहीं, मेरे पास।’ उसने दीपक को इशारा करते हुए कहा।
दीपक लिली के समीप आकर बैठ गया। लिली बोली-
‘माला का पत्र है तुम्हें बुलावा भेजा है।’
‘केवल मुझे या तुम्हें भी?’
‘यह तुम कैसे जान गए?’
‘इसमें जानने की क्या बात है, सहेली तो तुम्हारी है।’
‘हां लिखा है कि आकर मुझसे मिल जाओ और दीपक को भी साथ ले आऩा। क्यों चलोगे?’
‘अवश्य। क्यों नहीं? कब?’
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