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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘कोई ऐसा उपाय सोचो जिससे उसके मन से यह संदेह दूर हो जाए।’

माला सोच में पड़ गई। थोड़ी देर बाद बोली, ‘देखो यह काम तुम मुझ पर छोड़ दो, मैं अभी चली जाती हूं। दीपक आने वाला है। उसे यह न पता लगे कि मैं यहां आई थी।’

‘इससे क्या होगा?’ लिली ने पूछा।

‘तुम देखती जाओ, आज रात को एक पत्र तुम्हें भेजूंगी। तुम्हें मिलने से पहले किसी तरह उसे दीपक पढ़ ले तो सब काम बन जाएगा। घबराओ नहीं, मेरा काम तो तुम लोगों की सेवा करना है।’ यह कहकर माला ने साइकिल उठाई और चल दी।

लिली की समझ में न आया कि उसे यह पत्र की क्या सूझी। कहीं और आपत्ति न खड़ी कर दे।

माला ने घर पहुंचते ही लिली के नाम एक पत्र लिखा और अंधेरा होते ही अपने नौकर को सिखाकर उसके घर भेज दिया। नौकर पत्र लेकर लिली के घर पहुंचा और उसने दीपक के कमरे की खिड़की से झांका। दीपक अपने कमरे में ही था। नौकर दरवाजे की ओर बढ़ गया और उसने धीरे-से खटखटाया। दीपक ने दरवाजा खोलते ही पूछा, ‘क्या काम है?’

‘ओह! क्षमा कीजिए मैं कमरा भूल गया। उसने कांपती आवाज में कहा, मुझे तो लिली बीबी से काम है।’

‘क्या काम है?’ दीपक ने उतावलेपन से पूछा।

‘यह चिट्ठी उन्हें देनी है।’

‘किसने भेजी है?’

‘यह मैं आपको नहीं बता सकता।’

‘लाओ, मैं दे दूंगा।’

‘नहीं साहब, यह केवल उन्हीं को देनी है।’ उसने पत्र को दीपक के सामने करते हुए कहा। दीपक ने पत्र को संदेह की दृष्टि से देखकर हाथ से छीन लिया।

‘साहब, यह आप क्या कर रहे हैं? यह तो लिली बीबी....।’

‘हां! मैं जानता हूं। जाओ मैं उसे दे दूंगा, वह घर पर नहीं है।’

‘अच्छा साहब, मैं जाता हूं। किसी और के हाथ न लग जाए, बहुत प्राइवेट है।’ यह कहकर वह मुड़ा और दरवाजे से बाहर निकल गया।

दीपक ने लिफाफे को ध्यान से देखा। उस पर लिली लिखा था। उसने सोचा कि हो न हो वह सागर का पत्र है। नहीं तो चोरी-चोरी इस समय उसे यह पत्र और कौन भेज सकता है। देखें तो सही क्या लिखा है। यह सोचकर उसने लिफाफा पिन की सहायता से इस प्रकार खोला कि फिर से चिपकाने पर किसी को पता न चले कि किसी ने पत्र खोला है। पत्र खोलने पर सबसे पहले पत्र लिखने वाले का नाम पढ़ा। यह जानकर उसे आश्चर्य हुआ कि वह माला का पत्र था। उसने व्यर्थ ही खोला। परंतु फिर भी पढ़ने में क्या दोष है, यह सोचकर पढ़ने बैठ गया।

‘प्रिय लिली,

आज पूना से आए छः दिन हो चुके हैं और तुम मुझसे मिलने नहीं आई। मैं यह भली प्रकार जानती हूं कि मैंने जो बात हंसी में दीपक से पूना में कह दी थी, उसके कारण तुम मुझसे क्रुद्ध हो। मुझे क्या पता था कि मेरी साधारण-सी हंसी दीपक को तुमसे इतना दूर कर देगी और तुम्हें मुझसे। पहले तो मैंने सोचा कि स्वयं तुम्हारे पास आऊं परंतु साहस न हुआ। मेरी प्रिय सखी, अब जो हो चुका उसे भूल जाओ। सच पूछो तो मेरा इसमें दोष ही क्या है? मुझे क्या पता था कि दीपक तुमसे प्रेम करता है और तुम... नहीं तो मैं इस प्रकार की हंसी नहीं करती। आशा है तुम इस पत्र के उत्तर में स्वयं दीपक को साथ लेकर मुझसे मिलने आओगी।

- तुम्हारी माला।

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