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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘जी, परंतु लड़कियों की नजर में।’ दीपक ने लापरवाही से उत्तर दिया और सब हंसने लगे।

गाड़ी के डिब्बे में एक अच्छी-खासी मजलिस लगी हुई थी। बातों-बातों और गप्पों में समय इस प्रकार बीत गया कि पूना पहुंचने पर भी किसी को विश्वास न हुआ कि गाड़ी पूना पहुंच गई। जब माला ने दरवाजा खोलते हुए कुली-कुली की आवाज लगाई तो सबको होश आया।

गाड़ी से उतर कर सब माला के मकान पर पहुंचे। मकान क्या था एक बहुत बड़ी कोठी थी। माला के चाचा लखमीचंद पूना के धनवानों में से थे और माला उसके भाई की एकमात्र पुत्री थी।

सब अतिथियों से मिलकर लखमीचंद बहुत प्रसन्न हुए। जलपान करके सब तैयार होकर घुड़दौड़ के मैदान में पहुंचे। दीपक को उसमें कोई विशेष दिलचस्पी न थी परंतु सहयात्रियों के कारण उसे भी इसमें भाग लेना पड़ा। लाखों मनुष्य एकत्रित थे। कोलाहल हो रहा था। ‘नीलम जीतेगी’ नहीं ‘झांसी की रानी’‘विन लगाओ’ नहीं ‘प्लेस’ यही आवाज चारों ओर गूंज रही थी।

रेस समाप्त होते ही सब कोठी लौट गए। चाय पहले से ही तैयार थी और भूख भी सबको लगी थी, आते ही सब चाय पीने बैठ गए।

‘एक बात कहूं, आज्ञा है?’दीपक ने माला को संबोधित करके कहा।

‘अवश्य...’ लिली ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।

‘याद है आपने एक दिन वायदा किया था?’

‘क्या?’ माला ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।

‘गाना सुनाने का!’

‘ओह! मैंने सोचा न जाने कौन-सा वायदा।’

‘बहुत अच्छे समय पर याद दिलाया।’ अनिल बोला, ‘हम तो सचमुच भूल ही गए थे कि माला गाना जानती है।’

सबने उसकी हां में हां मिलाई और माला को भी कब इंकार था। कुछ देर में ही वह पियानो के पास बैठी दिखाई दी और उसने गाना आरंभ कर दिया।

गाना समाप्त हुआ। सबने तालियां बजाकर माला के गाने की प्रशंसा की। इसके बाद मधु ने एक छोटा-सा नाच दिखाया।

संध्या गहरी हो चुकी थी और रात की गाड़ी से दीपक को वापस बंबई लौट जाना था। वह जाना तो न चाहता था पर विवश था। वैसे तो लिली भी सवेरे की गाड़ी से पहुंच रही थी परंतु दीपक को ऐसा ही जान पड़ता था मानों वह उससे सदा के लिए बिछुड़ रहा हो।

‘दीपक एक बात सुनो।’ लिली ने उसे कुछ दूर ले जाते हुए कहा।

माला उसके समीप आते हुए बोली, ‘क्यों? कोई प्राइवेट बात है?’

‘नहीं, तुमसे क्या प्राइवेट बात हो सकती है।’ लिली ने माला के गले में बांहें डालते हुए कहा और दीपक से बोली, ‘दीपक एक बात कहनी है।’

‘कहो।’

‘देखो, डैडी से यह न कहना कि सागर और अनिल भी हमारे साथ थे।’

‘क्यों? यह झूठ बोलने की क्या आवश्यकता है?’

‘तुम इतना भी नहीं समझे? मेरा मतलब, हम तो एक पिकनिक पर आए हैं, कहीं डैडी को कोई संदेह न हो जाए।’

‘अच्छा।’ यह कहकर दीपक चुप हो गया। उसका चेहरा उतर गया और वह जाकर कार में बैठ गया।

‘अच्छा, लिली मैं भी जाती हूं। कार तो जा रही है, आते हुए कामिनी को ले आऊंगी। जरा रौनक रहेगी।’ माला ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा और दीपक के साथ बैठ गई।

‘जल्दी ही आना। अभी रात का प्रबंध भी करना है।’

‘बस गई और आई।’

ड्राइवर ने कार स्टार्ट की और सबने हाथ उठा दीपक को विदाई दी। उसने भी उत्तर में हाथ हिलाया। इतना धीरे मानो वह निर्जीव हो।

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