ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
दीपक लिली के कमरे में चला गया। लिली की आंखें बंद थी। शायद सो रही थी। उसे जगाना उचित न समझा और वह दबे पांव लौट पड़ा।
‘कौन है! दीपक तुम आ गए।’ लिली ने उसे देखकर पुकारा।
‘मैं समझा कि तुम सो रही हो।’
‘वैसे ही आंखें बंद थीं, नींद कहां!’
‘डैडी कह रहे थे कि दिन में कष्ट अधिक था। अब कैसी हो?’
‘अब तो तनिक आराम है।’
‘बीमारी भी सुंदरता की उपासक है, नहीं तो मैं तुमसे अधिक भीगा था।’
‘तुम्हें तो बस हर समय हंसी ही सूझती है। देखो, सामने मेज पर थर्मामीटर होगा।’
दीपक ने मेज पर से थर्मामीटर उठाया और धोकर लिली के मुंह में रख दिया। उसे अब भी सौ डिग्री बुखार था।
‘देखो सामने से कुर्सी ले लो और मेरे पास बैठ जाओ।’ लिली ने थर्मामीटर दीपक के हाथ में पकड़ाते हुए कहा।
दीपक कुर्सी लाकर उसके समीप आ बैठा और उसके मुख की ओर देखने लगा। कभी-कभी लिली भी उसकी ओर देख लेती। किसी के पैरों की आहट हुई, दीपक ने मुड़कर देखा। वह सागर था। आते ही बोला, ‘हैलो दीपक’ और फिर लिली को संबोधित करके बोला, ‘क्यों लिली, तबियत तो ठीक है?’
‘वैसे ही जरा बुखार आ गया था।’
‘मैंने सोचा कि न जाने आज कॉलेज क्यों नहीं आई। रात को तो तुम लोगों ने बहुत प्रतीक्षा कराई। कहां चले गए थे दोनों?’
‘वास्तव में बात यह है कि हम लोग खेल समाप्त होने से पहले ही आ गए थे। मेरी तबियत कुछ खराब हो रही थी।’
‘तो पूरी पिक्चर भी न देखी, खूब! मैं तो न जाने क्या सोचता रहा।’
‘क्या सोचते रहे?’ लिली ने व्याकुलता से पूछा।
‘जाने दो इन बातों को और सुनाओ, मेरे योग्य कोई सेवा?’
‘केवल इतना कि कुर्सी पर बैठ जाओ। खड़े-खड़े कहीं थक न जाओ।’
‘यह काम कठिन है। मुझे क्लब जाना है। मैं तो केवल तुम्हें देखने के लिए चला आया था।’
दीपक दोनों को अकेला छोड़कर चला गया। लिली तकिए का सहारा लेकर बैठ गई। उसने सागर से पूछा, ‘तो मेरे पास बैठने से तुम्हारा क्लब जाना अधिक आवश्यक है?’
‘तुम कहो तो मैं सारी रात तुम्हारे ही पास बैठा रहू, परंतु मूर्ति बनकर बैठने से तो क्लब ही हो आना अधिक अच्छा है।’
‘मूर्ति बनने के लिए किसने कहा है?’
‘दिल बहलाने के लिए यहां दीपक जो है। हम नहीं बैठेंगे तो क्या....।’
‘किसी और ध्यान में न रहिए। बातें तो वह तुमसे भी अधिक दिलचस्प सुना सकता है।’
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