ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘उसे बुखार आ रहा है। शायद यह सब रात पानी में भीगने के कारण ही हुआ।’
‘तो मैं जरा उसे देख आऊं?’
‘पहले चाय तो पी लो, ठंडी हो रही है।’
‘बहुत अच्छा।’ दीपक ने कुर्सी पर बैठते हुए उत्तर दिया और जल्दी चाय का प्याला बनाकर पीना आरंभ किया।
‘क्यों, आज बहुत जल्दी में हो क्या? अभी तो केवल आठ ही बजे हैं।’ डैडी ने मुस्कराते हुए प्रश्न किया।
‘नहीं तो। ओह, आपका प्याला बनाना तो भूल ही गया जल्दी में!’
‘कोई बात नहीं।’
दीपक ने चाय बनाई और प्याला सेठ साहब के आगे रख दिया। सेठ साहब ने अखबार दीपक के हाथ में देते हुए कहा, ‘सरक्युलर लिखता है कि ‘इम्पोर्ट’ पर फिर से पाबंदियां लगा दी जाएं, यह अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।’
‘क्यों लिली क्या हुआ?’
‘सब आप जैसे हितैषियों की कृपा है।’
‘इसमें मेरा क्या दोष? वर्षा तो भगवान की इच्छा से हुई।’
‘परंतु आग बरसाने वाले तो तुम थे।’ और लिली की आंखें फर्श पर जा टिकीं।
‘लिली, रात की बातों का कुछ बुरा तो नहीं माना तुमने?’
‘जाओ हटो। दुःखी मत करो। तुम्हें बातें बनानी बहुत आ गई हैं।’
‘मैं तो तैयार हूं, डैडी भी तो तैयार हैं। वैसे यदि तुम्हें मेरा ठहरना अच्छा नहीं लगता तो चला जाता हूं।’
दीपक यह कहते हुए आवेश में कमरे से बाहर चला गया।
लिली ने भावपूर्ण मुस्कराहट के साथ कहा-
‘पागल मनुष्य को क्रोध कितनी जल्दी आ जाता है।’
फैक्टरी बंद होते ही दीपक घर पहुंचा। सेठ साहब बरामदे में तैयार खड़े थे। कदाचित् कहीं बाहर जा रहे थे। दीपक को देखते ही बोले, ‘अच्छा हुआ कि तुम समय पर पहुंच गए। मैं आवश्यक काम से बाहर जा रहा था, लिली अकेली थी।’
‘कैसी तबियत है अब उनकी।’
‘अब तो कुछ आराम है। दोपहर को कुछ बुखार तेज हो गया था और पेट में भी सख्त दर्द था। डॉक्टर को बुलाया था। दवाई दे गया है।’
‘कब तक लौटेंगे आप?’
‘प्रयत्न तो शीघ्र आने का करूंगा। दवाई रखी है, दो घंटे तक एक खुराक दे देना।’
‘बहुत अच्छा।’
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