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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

4

रात्रि का अंधकार दूर हुआ। प्रभात के प्रकाश ने उसका स्थान ले लिया। दीपक अब मैनेजर के पद पर काम कर रहा था। कुछ ही महीनों में उसने सारा भार संभाल लिया और सेठ साहब के बहुत से उत्तरदायित्वों का बोझ हल्का कर दिया।

नित्य की भांति आज दीपक दफ्तर में बैठा काम कर रहा था। सेठ साहब ‘टाइपिस्ट’ से कुछ चिट्ठियां लिखवा रहे थे। चिट्ठियां समाप्त होते ही उन्होंने फाइल बंद कर दी और टाइपिस्ट दूसरे कमरे में चला गया।

‘दीपक जरा सामने का दरवाजा बंद कर दो।’ सेठ साहब ने अपनी ऐनक डिबिया में रखते हुए कहा।

दीपक उठा और दरवाजा बंद कर दिया।

‘देखो दीपक, तुमने जिस तेजी और खूबी से मेरा काम संभाला है, उसकी मुझे आशा न थी। मैं सोचता हूं कि भविष्य में भी तुम इसी प्रकार मन लगाकर पूरे उत्तरदायित्व के साथ काम करते रहोगे।’

‘यह सब तो आपकी कृपा है कि आज मैं इस योग्य बन सका।’

‘मैंने निश्चय किया है कि भविष्य में तुम्हारा वेतन सौ रुपये और बढ़ा दिया जाए, अर्थात् ढाई सौ के स्थान पर साढ़े तीन सौ।’ सेठ साहब मुस्कराते हुए बोले।

‘इसकी क्या जल्दी थी।’ दीपक कुर्सी पर बैठते हुए बोला, ‘आप जानते हैं, मुझे रुपये-पैसे का तो इतना ख्याल नहीं जितना....।’

‘ठीक है।’ बात काटते हुए सेठ साहब बोले, वह तो मैं समझता हूं परंतु यह तुम्हारा मूल्य है, पुरस्कार नहीं।

‘यह तो आप ही अधिक जानते हैं। मेरा काम तो परिश्रम करना है।’

‘मैं अपने कारोबार में कुछ परिवर्तन करना चाहता हूं, यदि तुम चाहो तो इसमें मेरी सहायता कर सकते हो।’

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