ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘लिली तुम... इस समय... यहां!’ दीपक के मुंह से अकस्मात् निकल गया।
‘पानी पीने के लिए उठी थी। बत्ती जली देखकर मैंने सोचा, देखूं महाशय इतनी रात गए तक क्यों जाग रहे हैं या बत्ती बुझाना तो नहीं भूल गए।’ उसने अपनी ओढ़नी संभालते हुए कहा।
‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। नींद नहीं आ रही थी और आज इस कमरे में अंतिम रात है। सोचा जी भरकर देख लूं।’
‘क्या सचमुच ही आपको कल जाना है?’
‘जी, मन तो नहीं करता पर विवश हूं।’
‘विवशता कैसी? देखिए आप मेरी एक बात मानेंगे?’
‘क्यों नहीं!’ दीपक ने लिली के सामने झुकते हुए कहा।
‘आप हमारे यहां से न जाइए।’
‘क्या? यह तुम क्या कह रही हो।’
‘क्यों, इसमें आश्चर्य की क्या बात है?’
‘कुछ नहीं, अंदर आ जाओ, मैं दरवाजा खोलता हूं।’
‘नहीं जल्दी कहो क्या कहना चाहते हो। रात बहुत बीत चुकी है।’
‘मुझे एक दिन तो जाना ही है। जितनी देर से जाऊंगा दिल उतना ही उदास होगा। फिर ‘डैडी’ ने भी तो आज्ञा दे दी है।’
‘वह तो सब कुछ आप ही की हठ के कारण हुआ, नहीं तो हम दोनों की इच्छा तो तुम्हें अपने पास रखने की थी।’
‘जैसा भी आप समझ लें।’
‘अच्छा चलती हूं।’
‘यह सब तुम अपने हृदय से कह रहे हो या केवल दिखावे के लिए?’
‘थोड़ी-सी देर तो और रुक जाओ।’
‘नहीं, बहुत देर हो रही है। सवेरे मिलूंगी।’ यह कहकर वह चली गई।
‘लिली, तुम कितनी अच्छी हो।’
दीपक के यह शब्द कदाचित् लिली के कानों तक न पहुंच सके।
प्रातः होते ही लिली के कहने से सेठ दीपक के पास पहुंच गए और उसका वहां से जाना स्थगित कर दिया। अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें और वह मिल गई। दीपक के चेहरे पर एकदम रौनक-सी आ गई। उसका दिल बल्लियों उछलने लगा।
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