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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘अच्छा चपरासी से कहो कि खाना लगाए। मैं तब तक पता कर लूं कि माल तैयार हुआ कि नहीं।’ सेठ साहब यह कहते हुए मैनेजर के कमरे में चले गए। दीपक ने चपरासी से कहकर खाना लगवा दिया और उनकी प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर में सेठ साहब लौटे। वह क्रोध से लाल-पीले हो रहे थे।

‘क्यों, क्या बात है?’ दीपक ने आश्चर्य से पूछा।

‘दूसरों पर मनुष्य कितना ही विश्वास क्यों न करें परंतु जब तक अपने-आप चिंता न करो, कोई काम समय पर नहीं होता।’ सेठ साहब ने कोट उतारते हुए कहा, ‘देखो, अब इस ऑर्डर को पंद्रह दिन हो गए, अभी तक माल तैयार नहीं हुआ। यदि ग्राहक ने स्वीकार न किया तो मैनेजर का क्या किया जाएगा?’

‘ठीक है। परंतु आप इतनी असावधानी के लिए दंड क्यों नहीं देते? जब दाम पूरे मिलते हैं तो काम भी पूरा होना चाहिए।’

‘कारोबार में इस प्रकार नहीं चलता। यह जाएगा तो दूसरा कौन-सा परवाह वाला मिल जाएगा। या तो कोई अपना आदमी ही हो जिसे उतना ही दर्द हो जितना मुझे। चलो खाना खाएं।’

दोनों ने हाथ धोएं और खाना खाने को बैठ गए।

‘देखिए, यदि आप मानें तो एक निवेदन करूं?’साग का कटोरा आगे बढ़ाते हुए दीपक ने कहा।

‘हां हां कहो।’

‘यदि मैं आपके किसी काम आ सकूं तो.....।’

‘परंतु तुम तो अपना कारोबार करना चाहते हो?’

‘यह कोई आवश्यक तो नहीं है। मुझे तो यदि आप आपने पास रख लें तो मेरा जीवन अवश्य सार्थक बन जाए।’

‘भली प्रकार विचार कर लो। यह काम बड़े उत्तरदायित्व का है और यदि कल इससे ही उकता जाओ तो....।’

‘मनुष्य करना चाहे तो सब कुछ कर सकता है। आप मुझे अवसर तो दीजिए।’ दीपक ने विनम्र भाव से कहा।

‘तो कल से काम सीखना आरंभ कर दो।’

‘बहुत अच्छा।’ दीपक ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया। घड़ी ने चार बजाए और दीपक ने घर जाने की आज्ञा ली।

‘आज तो जा सकते हो परंतु कल से....।’

‘मैं सब समझता हूं आप निश्चिंत रहे।’ दीपक ने सेठ साहब की बात काटते हुए कहा और कमरे से निकल गया। उसके पैर बहुत तेजी से बढ रहे थे।

दीपक बस से उतरते ही सीधे कोठी पहुंचा। लिली पहले से ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। दीपक ने मुंह-हाथ धो लिए और दोनों एक-साथ चाय पीने को बैठे। लिली की आंखों में एक अद्भुत सी मादकता भरी थी, होंठों पर एक दबी-सी चंचल मुस्कराहट थी। दीपक के वश में होता तो वह इन नेत्रों में सदा के लिए समा जाता। वह एकटक उसे देखे जा रहा था।

‘क्या बात है? आज आवश्यकता से अधिक प्रसन्न दिखाई दे रहे हो। लिली ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए कहा।’

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