ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘अच्छा डैडी।’
थोड़ी देर में दोनों तैयार होकर सड़क के किनारे खड़े बस की प्रतीक्षा कर रहे थे। दोनों चुप थे।
‘क्यों, आज सवेरे से ‘मूड’ बिगड़ा हुआ दिखाई देता है?’
‘नहीं तो।’ लिली ने होठों पर मुस्कराहट लाकर कहा।
‘बात कुछ अवश्य है। चाय भी बहुत ही चुपचाप पी गई और अब।’
‘उस समय तो डैडी आपके रहने का प्रबंध कर रहे थे। मैंने सोचा कि मुझे चुप ही रहना चाहिए। आजकल मकान बड़ी कठिनता से मिलते हैं और अब बस भी तो कोई आसानी से मिलती दिखाई नहीं देती।’
‘दोनों हंस पड़े।’
‘आपकी यहीं बातें तो हमें आपकी ओर खींच लेती हैं और आपकी खामोश सूरत देख नहीं सकते।’
‘तनिक कम खींचियेगा। खींचा-तानी में कभी-कभी धागे टूट भी जाते हैं।’
‘कोई बात नहीं। टूटे हुए जोड़ लेंगे।’
‘अच्छा तो कब जा रहे हैं आप?’
‘कहां?’
‘नए मकान में।’
‘अभी तो विचार नहीं। यदि आप चाहती हैं तो शीघ्र प्रबंध हो जाएगा।’
‘मेरे चाहने न चाहने से क्या। अंत में आपको जाना तो है ही।’
‘अवश्य। इसमें तो कोई संदेह नहीं। मुझे तो जाना ही है। आपको तो शायद कोई विशेष फर्क न पड़े परंतु मुझे....।’ यह कहता-कहता दीपक चुप हो गया। बस आकर रुकी और दोनों जल्दी से बस में बैठ गए। कुछ देर चुप रहने के बाद लिली बोली-
‘हां तो तुम क्या कह रहे थे?’
‘कुछ नहीं, यों ही कुछ दिमाग में आ गया।’
‘और अब चला गया? चलो यह भी अच्छा हुआ।’ लिली ने एक व्यंग्यभरी मुस्कराहट के साथ कहा और चुप हो गई। अकस्मात् दोनों के विचारों की श्रृंखला किसी स्वर से टूट गई। स्वर लिली का था-
‘अच्छा अब मेरा स्टाप आ रहा है। आपको बहुत आगे जाना है।’
‘ओह.... तो आपका कॉलेज आ गया?’
‘जी। शाम को पांच बजे भेंट होगी। समय पर पहुंचिएगा।’
‘बस रुकी और लिली अपनी पुस्तकें संभालती उतर गई।’
‘सेठ साहब लगभग दोपहर के दो बजे पहुंचे। दीपक उनकी प्रतीक्षा कर ही रहा था। उन्होंने आते ही कहा – देर कुछ अधिक हो गई। दफ्तरों के काम कुछ ऐसे ही होते हैं। तुमने तो अभी खाना भी न खाया होगा?’
‘जी, कोई बात नहीं। विशेष भूख तो है नहीं।’
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