ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
‘अच्छा है! अच्छा है! ...बहुत बढि़या गीता!’ सावित्री ये बात सुनकर प्रसन्न थी।
....गीता! मुन्सी जी बता रहे थे कि इस बार अपने बागों में पिछले साल की तुलना में पाँच कुन्तल ज्यादा आम हुआ है! मैं चाहती हूँ कि थोंड़े-2 आम हमारे गाँव के सभी घरों में बाट दो और रविवार को जो हमारे घर के बाहर भिखारियों और गरीब लोगों की भीड़ लगती है उन्हें भी जरूर दे देना! ....पैसों के लिए इन आमों को फल-मण्डी मत भिजवाना!’ सावित्री बोली निर्देश देते हुए।
‘जी भाभी! जैसा आप कहे!
‘.....और हाँ गीता! सुनार के यहाँ से पिछले हफते जो जेवर तुमने बनवाए है..... उनका हिसाब भी कर देना! तिजोरी में तीन लाख रूपये रखे हैं! जितने पैसे बने सुनार को हिसाब करके दे देना! बेचारा घर के तीन चक्कर लगा चुका है! उसे बार-बार दौड़ाना ठीक नहीं!’ सावित्री फिर याद करते हुए बोली।
‘ठीक है भाभी!’ गीता मामी ने एक बार फिर से हाँ में सिर हिलाया।
‘भाभी! ...एक बात है!’ मामी थोड़ा संकोच करते हुए बोली।
‘हाँ! हाँ! बोलो गीता! इसमें इतना संकोच करने की क्या जरूरत है? मैंने क्या तुम्हें कभी कोई बात कहने से रोका है?’ सावित्री बड़े प्यार से बोली।
‘भाभी! देव शादी करना चाहते है!’ गीता मामी ने धीमी आवाज में कहा।
|