ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘हाँ! बेटवा! आज तक रानीगंज मा जब-जब कौनों शादी पड़ी और गंगईया बड़े मन से शादी देखन गई... ई हुआँ जाइके सोय गई!’
‘अच्छा!’ देव बड़ी हैरत से बोला। वो जान गया कि लगता है कि उसकी गंगा से शादी हो ही नहीं पायेगी!’ देव एक बार फिर से उदास हो गया।
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‘आप लोग व्यर्थ ही चिन्ता कर रही हैं!’ पण्डित ने फिल्मी इस्टाइल में ऐंट्री मारी।
‘सारी शादी मैं कराउँगा... और आप लोग देखियेगा कि गंगा को बिल्कुल भी नींद नहीं आयेगी!’ पण्डित पूरे आत्मविश्वास के साथ बोला।
‘तब हमका कौनों चिन्ता नाई है!’ गंगा के तोद फुलाये बाबू गंगासागर हलवाई भी खुश हो गये अन्य सभी के साथ।
रानीगंज के सारे घर में न्योता था.. क्योंकि गंगा की दुकान रानीगंज की सबसे बड़ी दुकान थी। उन्हें हर कोई जानता था। आदमी, औरतें, बूढ़े, बच्चे सभी दावत खाने को आये। जो चार पूडि़याँ खा सकता था.. उसने पाँच खाई। और जो पाँच खा सकता था उसने दस।
आखिर में सभी मेहमान दावत खाने के बाद और गंगा और देव को अपना आशीर्वाद देने के बाद प्रस्थान कर गये।
अब विवाह विशुद्ध हिन्दू वैदिक रीति से संपन्न होना था।
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