ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
किसी तरह रात कटी। सुबह हुई।
‘‘ऐओं!..... ऐओं!.... ऐओं!.... ऐओं! ........‘‘ मोर के बोलने की बहुत मीठी-मीठी.... कानों को सुकून पहुँचाने वाली आवाज देव के कानों में गयी।
देव की बेहोशी टूटी। उसका बुखार अब खत्म हो गया था। शायद दादी की झाड़-फूँक ने काम किया था। जो कुछ पहले धुँधला-धुँधला सा था अब वो सब साफ-साफ सा हो गया। चारों ओर घास-फूस, छप्पर से बनी झोपडि़याँ थी। साथ ही काफी ऊँचे-ऊँचे ल्यूकीलिपटस के पेड़ भी लगे थे मछुवारों की इस बस्ती में। तभी..... दादी ने देव के स्वागत गृह में प्रवेश किया...
‘तू कार इन लोगन का मिलेओ!..... तू बेहोश रहेओ!’ उस बूढ़ी औरत ने धीरे-धीरे किसी प्रकार संघर्ष करते हुए कहा।
फिर वो स्वागत गृह के बाहर गई और हाथ में कुछ लेकर वापस लौटी।
‘‘बेटा! ...का कौने चीज हेरान है? बूढी औरत ने पूछा जब देव को बड़ा व्याकुल सा, बेचैन सा पाया।
......पर देव चुप ही रहा। दादी ने देखा कि देव अपनी समस्या के बारे में बात नहीं करना चाहता। तब वो चाय पकड़ाकर वापस लौटने लगीं।
‘‘दादी! क्या तुम सच में सुनना चाहती हो?‘ देव ने पूछा।
‘‘हाँ! अगर तू बताऐक चाहो....तब्बे!‘‘ दादी बोली।
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