ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘ओह! क्या जबरदस्त ट्रेजिडी है इस पिक्चर में! जो हीरोइन पढ़ी-लिखी है, समझदार है, परिपक्व है, देव को मन से भली-भाँति समझती है उससे देव को प्यार न हुआ और हुआ भी किससे एक चाय-समोसा बेचने वाली, बात-बात पर गुस्सा जाने वाली एक अपनढ़ गँवार हलवाइन से!.... इसीलिए शायद कहते हैं कि प्यार दिमाग की नहीं दिल की सुनता है!’ मैंने व्यंग्य किया.....
‘‘अरे! अरे! ये क्या हुआ? मुझे गजब का आश्चर्य हुआ यह दृश्य देखकर....
क्या श्रीदेवी को देव से प्यार हो गया है? और जो देव ने कोई ऐतराज नहीं किया उसका क्या मतलब है? क्या देव को भी श्रीदेवी से प्यार हो गया? क्या इतनें दिनों तक साथ में रहने के बाद गायत्री और देव के मध्य क्या कोई दो पत्तियों वाला प्रेम का पौधा विकसित हो गया है? क्या दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया है? क्या अब ये कहानी प्रेम त्रिकोण की तरफ अग्रसर हो रही है? कुछ तो गड़बड़ जरूर है! तरह-तरह के प्रश्न मेरे मन में उठने लगे....
पर... ये प्यार का रिश्ता है!... ये प्रेम का रिश्ता है!... ये गहरे और पवित्र प्रेम का रिश्ता है! अगले ही क्षण मैंने जान लिया। दूध का दूध, पानी का पानी अलग मैंने अलग कर लिया....
जिस प्रकार देव गायत्री को कभी दुखी, उदास, निराश नहीं देख सकता, ठीक उसी प्रकार गायत्री भी देव को उदास, हताश सा नहीं देख सकती। मैंने पाया....
अगर गंगा देव और गायत्री को इस प्रकार यों आलिंगनबद्ध रूप में देख लेती तो पता नहीं क्या होता। शायद खुद ही अपने बाल नोंच लेती। शायद खुद ही अपने हाथों अपने कपड़े फाड़ लेती मारे गुस्से के। मैंने अन्दाजा लगाया....
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