ई-पुस्तकें >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘टप! टप! टप! टप!‘‘ देव के अश्रु किसी माला की मोतियों की तरह टूटने लगे। टूटकर अब वो गायत्री की हरी-हरी चुनरी पर बिखरने लगी। पर गायत्री ने एक भी मोती जमीन पर ना गिरने दिया। हर एक कीमती मोती को गायत्री ने जैसे समेट लिया, सहेज के रख लिया। ये सारे अश्रु मोटे-मोटे, ताजे-ताजे, और गरम-गरम थे जैसे गंगा की दुकान पर सुबह-सुबह बनने वाली ताजी-ताजी, मोटी-मोटी जलेबियाँ। मैंने तुलना की....
‘‘गायत्री! मुझे कस के पकड़ो! आज हमें रोने दो! ...आज हमें रो लेने दो जी भर के!‘‘ देव ने माँग की। वो भाव-विभोर हो उठा था। गायत्री के स्पर्श से वो बिल्कुल मोमबत्ती की तरह पिघल गया था।
‘ठीक है! गायत्री के सहारे ही सही! लड़का अगर जी भर के रो ले तो आँखों के रास्ते ही सही..... कम से कम उस चुड़ैल का जहर तो निकल जाए! समझ लो बीछी का छेदा उतर गया।’ मैंने सोचा....
गायत्री ने अपनी हाथों रूपी रस्सी की गाँठ को और कस दिया। मैंने देखा....
अगर ठक! ठक! ठक! ठक!... कर चलने वाले पंखे को बन्द कर दिया जाता तो कमरे में धक! धक! धक! धक!..... सिर्फ दो दिलों की धड़कन ही सुनाई देती। मैंने सुना....
एक गायत्री की और दूसरी देव की। एक बार देव का दिल धड़क रहा था, तो दूसरी बार पतली दुबली श्रीदेवी मतलब गायत्री का। दोनों दिलों की धड़कन आपस में बड़े सलीके से गुंथी हुई थी जैसे गंगा की चोटी! जो देव को कभी पसन्द न थी। देव तो गंगा को हमेशा जूड़े में देखना चाहता था, पर देहातिन और महागँवार गंगा को जूड़ा बाँधना आता ही नहीं था। मैंने ये भी जाना....
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