ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
|
3 पाठकों को प्रिय 347 पाठक हैं |
जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
21
शुक्रवार : सुबह 3.30 बजे।
शिफ्ट खत्म हो चुकी थी। हम सब लोग घर वापस जाने के लिए सेंटर के गेट के बाहर खड़े थे। सबको घर जाकर सोने की जल्दी थी लेकिन बस मुझे ही नहीं।
सारी रात मैं किसी उलझन में था। आने वाले हफ्ते में मेरे मुम्बई के टिकट कन्फर्म थे। मैं वहाँ जाने से पहले कोमल के मन से सब कुछ साफ कर देना चाहता था लेकिन शायद अब वक्त नहीं बचा था उस पल का इन्तजार करने का जब मैं उसे कुछ समझा पाता।
मुझे जल्द से जल्द कुछ करना ही था।
मनोज सब की तरह पार्किंग से अपनी बाइक बाहर निकाल रहा था। मैं कुछ सोचते हुए उसके पास गया।
‘तू आज समीर के साथ जा सकता है क्या?’
‘क्यों?’
‘मुझे तेरी बाइक चाहिये थी।’ हर बार अपने किसी दोस्त से उसकी बाइक लेना खुद मेरे लिए भी आसान नहीं था।
‘वो मैं समझ रहा हूँ लेकिन क्यों?’ मनोज के चेहरे पर कोई परेशानी नहीं थी।
मैंने खामोशी से बस नजरें कोमल की तरफ कर दीं। मनोज ने भी उसी तरफ देखा और उसका मुँह बन गया।
‘कोई फायदा नहीं है। तू समझता क्यों नहीं? जब हमें प्यार होता है तो सिवाय अपने दिल की आवाज के कोई और आवाज सुन ही नहीं पाते।’
मैंने बस चुपचाप उसकी बात सुनी, कोई प्रतिक्रिया नहीं की।
उसने चुपचाप मेरे हाथ में चाबी दी और समीर को पुकारता हुआ मेरे पास से चला गया।
मैंने कोमल को कैब में जाने से रोक लिया।
सब के वहाँ से जाने के बाद मैं बाइक लेकर उसके पास गया-
‘चलो।’
मेरी उलझन बढती ही जा रही थी। खुद मैं भी अपनेआप से पूछ रहा था- मैं ये कर ही क्यों रहा हूँ? और ठीक यही सवाल पीछे बैठी कोमल का भी था।
‘क्या हो गया है तुम्हें? मैं कैब से जा रही थी ना?’
मैं सोच में था। उसे नजरअंदाज करता रहा। उसके घर से कुछ दूर मैंने गाड़ी रोकी।
‘अब क्या हुआ?’ उसने फिर एक सवाल किया।
मैं खामोश ही था। मैं अब भी सोच ही रहा था लेकिन क्या? ये नहीं पता था।
|