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फ्लर्ट

प्रतिमा खनका

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :609
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9562
आईएसबीएन :9781613014950

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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।

 

11

तीसरी शाम।


एक छोटे से स्टूल पर खुद को बैलेस करते हुए मैंने माँ के हाथ से पर्दा का एक और हिस्सा लिया। मैं उसे लगाने में व्यस्त था। माँ बेहद शान्त थीं, ना जाने उनका दिलोदिमाग किस जगह अटका था। शायद वो सोच नहीं पा रही थी कि कहाँ से शुरू करें।

पिछले कुछ दिनों में मैंने खुद को घर के काम और ट्यूशन में व्यस्त रखा हुआ था। मेरे दोस्त मुझसे कई बार उस हन्ट के बारे में पूछ चुके थे। मैंने उन्हें और खुद के मन को बस ये कह कर चुप करा दिया कि शायद यही किस्मत में लिखा था।

माँ ने मुझे पर्दे का आखिरी हिस्सा दिया और-

‘अंश तू मुम्बई कब जा रहा है?’

मैं डगमगा कर नीचे गिर पड़ा।

‘आपने तो मना कर दिया था।’

‘मुझे लगता है कि तुझे जाना चाहिये।’ उन्होंने अपना हाथ मुझे दिया। मैं खड़ा हो गया। पता नहीं क्यों लेकिन मुझे लगा कि वो पूरे मन से नहीं बोल रहीं।

‘लेकिन अब क्यों?’

‘तूने न चाहते हुए भी मेरी बात मानी।’ पर्दे को हाथों से ठीक करते हुए- ‘तू खुद निराश हो गया लेकिन मुझे निराश नहीं किया। मेरी खुशी के लिए तूने अपनी खुशी छोड़ दी.... मुझे दुनिया की इस भीड़ से डर लगता है लेकिन इतना भी नहीं कि तेरी खुशी को उसकी भेट चढ़ा दूँ। देख अंश, मुझे दुनिया पर भरोसा नहीं है लेकिन तुझ पर है। तू जहाँ जाना चाहता है जा, जो मेरे बस में होगा वो मैं कर दूँगी तेरे लिए।’

वो इस कदर मुझे समझ सकती है? सब कुछ मेरे हित में ही था लेकिन फिर भी मैं बेवजह एक ही सवाल किये जा रहा था-

‘लेकिन अचानक क्या हुआ आपको?’

‘कुछ नहीं। मैं जानती हूँ कि तेरी कुछ इच्छाएं है, जरूरतें है, जो मैं पूरा नहीं कर सकती, लेकिन अगर तू उनको पूरा करना चाहे तो मुझे रोकना भी नहीं चाहिये न।’

उसने ऐसे कहा मानों कोई बड़ी हार स्वीकार कर ली हो। बेहद थका सा लहजा था उनका। मैं कभी उन्हें ये एहसास नहीं कराना चहता था कि उनकी परवरिश में कोई कमी है।

‘लेकिन ममा, अब तो मैं आपसे कुछ कह भी नहीं रहा हूँ।’ मैंने जोर देते हुए कहा

‘हाँ, हाँ जानती हूँ कि तू मुझे घर में सबसे ज्यादा समझता है लेकिन मैं भी तो तेरी माँ हूँ, तेरी खामोशी को समझने की आदत-सी है मुझे क्योंकि तुझे तबसे सम्हाल रही हूँ जब तू कुछ बोलना तक नहीं जानता था।’

धीरे धीरे हरे पहाडों और धुंध के पीछे सूरज की नर्म किरनें तेज हो रहीं थीं।

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