ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
‘तुम अपनी गलती मुझ पर मत थोपो अंश!’
‘गलती? डॉली अगर तुमको ये गलतफहमी है कि मैं, मुकेश और तुम्हारे रिश्ते के बारे में नहीं जानता तो बता दूँ कि तुम्हारा सारा कच्चा चिट्ठा है मेरे पास।’ उसकी सारी गलतियाँ उसके चेहरे पर उतर गयीं थीं पसीना बनकर! उसके चेहरे से वो सारा झूठा आत्मविश्वास उस नमी से मिट गया।
‘मेरे ही फ्लैट में तुम कितनी बार, किस-किसके साथ वक्त बिता चुकी हो मैं सब जानता हूँ। मेरे पैसों को तुम किस तरह किस-किस पर उड़ाती रही हो ये भी पता है मुझे!’ ये आखिरी नश्तर था जो ठीक उसे दिल पर चुभा होगा। उसके पैरों में इतनी जान नहीं रही कि वो अपना ही भार सह सके। सिर पकडे, भरी हुई आँखों को जमीन पर गाड़े आहिस्ता-आहिस्ता वो एक कोने पर बैठ गयी।
‘अगर तुम सब जानते थे तो मेरे साथ क्यों थे?’
‘वो तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा, वो मुझ जैसा कोई फ्लर्ट ही समझ सकता है।’
‘मैं यामिनी जैसी दिखती थी इसलिए?’
‘हाँ लेकिन यही एक वजह नहीं थी।’ मैं उसकी तरफ चलने लगा। ‘उस वक्त बहुत अकेला था मैं... कोई चाहिये था जो मेरे जख्म भर सके...’ उसके पास बैठते हुए- ‘डॉली, तुम और जितनी भी लड़कियाँ मेरे खिलाफ बक रही हैं उनमें से कोई एक भी है जो अपनी तरफ से ईमानदार या भली रही हो?’ मैं उसे ताक रहा था और वो फर्श को। किसी नदी सी हो गयी थी जो बस अभी, अचानक ही जम गयी हो... और मेरे लफ्ज लगातार बह रहे थे। ‘तुम या उनमें से कोई एक भी है जो मुझे सच में चाहती थी, न कि किसी मकसद से! और रही बात तुम्हारी, तो डॉली तुम्हारे पास तो वजह ही वजह थी न... माय किंलिग आईस एण्ड फ्लैशिंग स्माईल! मनी, फेम!’ कड़वाहट मेरी आवाज में घुलती जा रही थी और उसके आँसू किसी गुनाह के एहसास में।
वो रो तो नहीं रही थी लेकिन ना जाने कितनी बूँदें उसकी आँखों से उतर कर उसकी गर्दन पर नमी छोड़ते जा रहे थे। ‘ये सब सच है अंश लेकिन एक सच और भी है।’ एक सिसकी के साथ अपने हाथों से घुटनों को बाँधते हुए, खुद को थोड़ा और सिकोडकर- ‘मैं सच में प्यार करती थी लेकिन जब लगा कि तुम्हारे पास तो ऑप्शन ही ऑप्शन है तो मैं वापस मुकेश के पास लौट गयी। सच कहूँ तो तुम्हारे साथ वो एक इत्मिनान नहीं था, एन्योुमरेन्स नहीं था मुझे कि तुम मेरा साथ हमेशा निभाओगे। इसीलिए तुम्हें... शायद धोखा दिया।’
वो आँसू...... वो हीनता..... वो अपराधबोध! अफसोस होता मुझे जब मैं किसी इन्सान को अपने किये पर पछताते देखता हूँ। अपनी ही खुशी के लिए किया कोई कर्म क्यों अपने ही दुःख का कारण हो जाता है? और क्यों हमें उसकी सफाई जमाने को देनी पडती है? मेरी जिन्दगी के दर्दो-गम अगर मेरे हैं तो मेरे फैसलों पर क्यों जमाने की हाँ की मुहर हो?
मैं डॉली से ये सफाई, ये पछतावा नहीं माँगने आया था..... बस उसे रोकने ही तो आया था।
मैं उसे छोड़कर चला आया।
मैं इस दुनिया और इस फील्ड को अच्छे से जानता था और इसलिए मैं कभी सही या गलत के भेद में नहीं पड़ा। कभी अच्छे या बुरे के भेद में नहीं पड़ा। जो आज के हालात में सही है वो कल गलत हो सकता है और जो कल तक गलत था, क्या मालूम वो आने वाले कल में सही हो? कौन कह सकता है? ये कौन तय कर सकता है कि मारने वाला सही था या मरने वाला? जान तो एक कातिल भी लेता है और जंगी जवान भी।
मैं बस जीना चाहता था और वही कर रहा था।
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