ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
‘हैलो प्रीती ! फाईन?’ मैंने फार्मेलिटी की।
‘ठीक हूँ! और तुम्हारा हाल तो मैं नहीं पूछूँगी।’ प्रीती ने मेरे चेहरे पर देखते हुए कहा।
‘क्यों?’ मैंने अन्दाजा लगाते हुए पूछा।
‘कुछ पता है, कुछ अखबार में पढ़ लेती हूँ, कुछ टी.वी. पर सुन लेती हूँ और कुछ... दिख रहा है तुम्हारे चेहरे पर।’ ये एक शिकायत थी मेरे बिखरे से बालों, बढी हुई दाढ़ी और बुझी सी आँखों के खिलाफ। जो लड़की कभी मेरे तरस की मोहताज हुआ करती थी, वो आज मुझ पर तरस खा रही थी, अजीब एहसास था।
‘तुम ना। ये इतनी रात को क्या कर रही हो? कल नहीं आ सकती थी?’ मैंने बात आगे बढ़ा दी।
‘नहीं, रात भर नीद नहीं आती मुझे। तुम्हें सामने से देखने का मन कर रहा था।’ कुछ देर को लगा था कि वो बदल गयी है। कितना गलत था मैं!
‘अन्दर चलो। चाय पीते हैं।’
ये कोई सही वक्त नहीं था किसी के घर आने का। उसे अन्दर आते हुए झेंप हो रही थीं, वो आना तो नहीं चाहती थी लेकिन मैं उसे खींच तान कर ले आया। वो उस वक्त मेरे परिवार के सामने कम्फर्टेबल नहीं था इसलिए मैंने उसे अपने कमरे में भेज दिया।
अब ये किसी और के लिए अजीब था।
जब मैं एक और कप चाय लेने नीचे आया तो-
‘अंश ये प्रीती क्या कर रही है यहाँ? वो भी इस वक्त।’ उन्होंने एक कप भर कर मेरे हाथ में दिया।
‘कुछ नहीं ममा, मिलने आयी है मुझसे।’
‘रात को? पागल है क्या?’
‘मुझे क्या पता, बचपन की दोस्त है आ गयी। इसमें बुराई क्या है?’ मैं वहाँ से चल दिया, जानता था कि अगर थोड़ी भी देर रुका तो सवाल कई गुना बढ़ जायेंगे।
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