ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
‘क्या हुआ?’
‘तुम अचानक क्यों राजी हो गये? और वो जाने को क्यों तैयार थी?’ एक छोटे अन्तराल के साथ अपनी कुर्सी पर पीछे होते हुए- ‘तुम लोगों का कुछ नहीं हो सकता!’ मैंने अपना पेन बन्द कर के वापस जेब में रखा।
‘मैं नहीं जानता कि वो क्यों ये सब कर रही थी।’
‘और तुम?’ कई सवाल, कई शिकायतें एक साथ दिखीं उसके चेहरे पर। मैं तुम्हारे पहले वाले फैसले से ज्यादा खुश था।’
‘मैं... मुझे पैसों की जरूरत है।’
उसने नकारते हुए सिर हिलाया- ‘तुम्हें जरूरत पैसे की है या उसकी?’ जवाब आसान नहीं था इसलिए मैं खामोश ही रहा।
‘अंश, मैं तुम्हारी समझ पर नाज किया करता था। मेरी नजरों के सामने से अब तक जितने गुजरे हैं उनमें से बस एक तुम ही हो जो पैसे के पीछे दीवाना नहीं है। जिसने जिन्दगी जी है और जो जानता है कि किस हालात में अपने किस एहसास को कैसे काबू करना है लेकिन अब....’ उसने झटके से कुर्सी छोड़ दी। ‘वो न जाने कितने लोगों को उल्लू बना चुकी है और तुम भी उसके झांसे में आ गये? तुम उसे कितना भी चाहो वो तुमसे प्यार नहीं करेगी,! वो किसी से प्यार कर ही नहीं सकती!’ संजय बात खत्म करते करते चिल्ला सा पड़ा।
‘हाँ मैं जानता हूँ, वो नहीं कर सकती!’ और मैं भी। ‘चाहे तो भी नहीं!
‘क्या मतलब?’
‘कुछ नहीं, तो फिर बस मुझे बता देना कि कब जाना होगा।’ मैंने अपनी कुर्सी छोड़ दी।
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