ई-पुस्तकें >> फ्लर्ट फ्लर्टप्रतिमा खनका
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जिसका सच्चा प्यार भी शक के दायरे में रहता है। फ्लर्ट जिसकी किसी खूबी के चलते लोग उससे रिश्ते तो बना लेते हैं, लेकिन निभा नहीं पाते।
‘देख अंश, वो तुझे पसन्द करती है और समीर उसे। तो कुछ ऐसा कर ना कि वो तुझे पसन्द करना छोड़ दे।’ मनोज ने कहा।
‘क्या करूँ? मारूँ जाकर उसे? तू भी न मनोज!’ मैंने चिढ़कर जवाब दिया। मनोज चुप हो गया और अब समीर की बारी थी।
‘यार अंश तू इस बार राखी पर उसे अपनी बहन बना ले फिर तो उसके पास मैं ही बचूँगा न।’ समीर ने सलाह दी।
‘नहीं समीर, इस साले को कोई राखी नहीं बाँधने वाली। मुझे पता है, ब्रदरशिप तो नहीं हो सकती। तू ऐसा कर अंश, किसी और से फ्रेन्डशिप कर ले। फिर वो क्या करेगी?’ मनोज ने राय दी।
‘हाँ अंश ये आइडिया अच्छा है। तू न किसी और को ऑफर कर दे। वो जलन के मारे फिर मुझे हाँ कह देगी। तुझे उससे मुक्ति मिल जायेगी और मेरा भी भला हो जायेगा।’
मैंने ऐसा कुछ नहीं किया और करता भी नहीं लेकिन हाँ प्रीती का पागलपन बढ़ता ही जा रहा था। कभी-कभी वो अपनी सहेलियों के साथ मेरे घर के आस पास चक्कर लगाती थी। कभी-कभी मेरे गेट के सामने फूल रख जाती थी। माँ को तो नहीं, लेकिन हाँ, मेरी बहनों को मुझ पर थोड़ा शक होने लगा था और ये बात मुझे बहुत परेशान कर रही थी। इस बीच मुझे एक लड़की का ध्यान आया, जो वो मुझे अपना फेवरिट मानती थी। वो 12वीं में थी और खुद को मेरी ही उम्र का बताती थी। मैंने प्रीती के चलते, मजबूरन उससे दोस्ती बढ़ा ली।
समीर को इस बात की बड़ी खुशी थी। जिस दिन ये बात प्रीती को पता चली, समीर को लगा कि उसका रास्ता साफ हो गया है, लेकिन प्रीती ने उसे फिर निराश किया। उस दिन वो थोड़ा दुखी था। हम घर वापस जा रहे थे कि समीर की गाड़ी अचानक बन्द हो गयी।
‘क्या हुआ समीर?’ मैंने पूछा।
‘तेल खत्म।’ समीर ने सर पकड़कर कहा।
‘अब धक्के लगाने होंगे?’ मैं गाड़ी से उतर गया और- ‘समीर तू ऐसा कर कि घर जा, मैं भी पैदल ही चला जाता हूँ।’ अपना बैग कन्धे पर रखकर मैं दो कदम ही चला था कि उसने पीछे से आवाज दी।
‘अबे, कहाँ जा रहा? धक्का नहीं मारेगा? कल से फिर पैदल ही आना ठीक है!’
‘रुक लगाता हूँ।’ मैंने बैग पीठ पर लगा लिया। ‘तेल क्यों खत्म हो गया? घर से पैसे नहीं मिले थे क्या?’
‘मिले थे। प्रीती के लिए फूल लाता था ना, उधार में, वो उधार चुका दिया।’ समीर ने जवाब दिया।
‘देखा! इसलिए मैं लड़कियों से दूर रहता हूँ।’
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