ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'परन्तु आपको यों न कहना चाहिए था!'
'क्या? क्या न कहना चाहिए था?'
'इन लोगों से ज़रा-ज़रा-सी बात पर उलझना व्यर्थ का वैर मोल लेना है और फिर हमें कम्पनी की भलाई ही सोचनी है।'
'परन्तु मुझे कुछ और सोचना है।' विनोद कुर्सी छोड़कर क्लब के लॉन में आ गया और फाटक की ओर टहलने लगा। माधवी भी पाँव मिलाती उसके साथ आ गई। वह उसके हाथ में हाथ देकर उसका ध्यान दूसरी ओर ले-जाना चाहती थी; परन्तु विनोद ने उससे पहले ही मौन को तोड़ते हुए उससे सम्बोधित होकर कहा-'मैंने यदि कम्पनी की भलाई सोची तो करोड़ों में चन्द सिक्के और जुड़ जाएँगे, और यदि इन दुर्बल और निर्बल लोगों का साथ दिया, तो सम्भव है इनकी दशा कुछ सुधर जाए और वे भी जी लें। तुम ही बताओ, दोनों में से किसकी भलाई सोचूँ?'
'जैसा आप उचित समझें। मैं तो यह चाहती हूँ कि आप चिन्तित न रहा करें, वरना...'
'माधवी, तुम जब तक मेरे साथ हो, मैं हर कठिनाई हँसते हुए झेल सकता हूँ। यह कहते हुए विनोद ने माधवी की कमर में अपना हाथ दिया और उसे सहारा देते हुए पेड़ों की छाँह-तले बढ़ गया।
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