ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
वे दोनों एक साथ उतरे और हवाई अड्डे के बेटिंग-हॉल के एक कोने में कुर्सियों पर जा बैठे। वे अपने-आपको अकेला न पा रहे थे। कुछ क्षण यूँही बैठे रहने के पश्चात् मौन को तोड़ते हुए लड़की बोली-'हम भी कैसे सहयात्री हैं...एक-दूसरे का नाम भी...'
'मुझे विनोद कहते हैं।'
'और मुझे माधवी बरमन।
'माधवी...!' विनोद ने दबे होंठों से उसका नाम दुहराया। जहाज के चालक ने वेटिंग-हॉल में बैठे लोगों को आकर सूचना दी कि इंजन का पुर्जा बदला जाएगा और उन्हें लगभग तीन घण्टों तक वहीं रुकना पड़ेगा।
माधवी ने कलाई पर बँधी घड़ी को देखा। दिन के बारह बजे थे। जहाज तीन बजे से पहले न उड़ सकेगा। उसने विनोद से पूछा-'तो अब क्या होगा?'
'किसका?'
'इन तीन घण्टों का।'
'इन असम की घाटियों में...'
'कहीं किसी अनजाने मार्ग पर खो गए, तो?'
'तो क्या हुआ। खोकर ही तो मानव कुछ पाता है।'
वह चलने को उठी।
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