ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
एकाएक वह चौंक पड़ा जैसे अब तक वह कोई स्वप्न देख रहा हो-वास्तविकता से बहुत दूर, कल्पना की दुनिया में। उसे कामिनी का ध्यान आया। उसे भी तो उसने इस सर्द रात में बाहर धकेल दिया था'! उसे एक कुत्ते से इतना स्नेह है; पर वह तो मानव है, रात-भर में तो वह ठण्डी हो चुकी होगी। क्रोध में आकर उसने यह क्या कर दिया? पर नहीं...वह मानव है, बुद्धि से काम ले सकती है। इस अँधेरी रात में अवश्य उसने कोई आसरा ढूंढ़ लिया होगा और सवेरा होते ही बस से अपने घर लौट जाएगी-वह इस घर में अब कैसे रह सकती है?-इन्हीं विचारों में वह पिछवाड़े वाले द्वार तक जा पहुँचा।
ज्योंही उसने किवाड़ खोला कि वह सहसा कांप उठा। कामिनी बेसुध सीढ़ियों पर पड़ी हुई थी। विनोद झट से उसके पास पहुँचा और उसकी नाड़ी टटोलने लगा। उसका शरीर बर्फ की भाँति ठण्डा हो रहा था और उसका मुख सफेद पड़ गया था मानो उसके शरीर का लहू पानी बन गया हो।
नाड़ी अभी तक चल रही थी। विनोद ने एक-दो बार कामिनी को पुकारा; परन्तु वह बेसुध पड़ी थी। उसने उसे बाँहों में उठा लिया और भीतर ले आया।
उसकी समझ में न आ रहा था कि उसे कैसे होश में लाए। उसने शीघ्रता से उसे रजाई में लपेट दिया और उसकी हथेलियाँ और तलवे मलने लगा। ज्यों-ज्यों वह उसकी हथेलियाँ और तलवे मलता गया, त्यों-त्यों रक्त का रुका हुआ प्रवाह चलने लगा और धीरे-धीरे उसका शरीर गर्म हो गया।
कोई आधे घण्टे के बाद अथक परिश्रम के पश्चात् उसके शरीर में कुछ हलचल हुई। अभी उसकी आँखें बन्द ही थीं कि उसके होंठ हिले। वे पानी के तेज़ उछाल की भाँति थरथराए और रुक-रुककर कह उठे-'मुझे क्षमा कर दो नाथ!...मैं क्रोध में न जाने...वह पूरी बात कह न पाई और उसकी बन्द पलकों में से मोतियों की भाँति आँसू छलक पड़े। विनोद की कठोरता लुप्त हो गई। उसने उसे अपने निकट खींच लिया और बाँहों में जकड़कर सीने से लगा लिया। बाहर बादलों में छिपी हुई बिजली ने क्षण-भर के लिए उजाला कर दिया। घाटी की अँधेरी गहराइयों ने भी उजाले की किरण देखी। विनोद के हृदय के अन्धकार में किसी किरण ने उजाला भर दिया।
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