ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
आज त्यौहार का दिन था और छुट्टी थी, परन्तु इस दुर्घटना नें लोगों की खुशियों को शोक में परिवर्तित कर दिया था। बस्ती के लोगों की आँखों में आसू थे और वे घाटी में खड़े नीचे पत्थरों को देख रहे थे जो शताब्दियों से यही उछालें देखते हुए भी चुप थे और उनके शरीर का कण-कण धीरे-धीरे बहता हुआ नीचे दूर मैदानों में बिछता चला जाता था।
रमन उस स्थान पर खड़ा था जहां विनोद उसे अन्तिम बार रोककर खड़ा हुआ था। कामिनी शोक की मूर्ति बनी एक स्थान पर सिर झुकाए बैठी थी और माधवी दफ्तर के बैंच पर रो रही थी। रमन को विनोद के ये शब्द याद आ गए, यह मत भूलो कि तुम इंजीनियर हो और दो किनारे मिल सकते हैं, एक पुल द्वारा...और तुम्हीं वह पुल हो!'
सूर्य अस्त हो रहा था। लोग धीरे-धीरे बस्ती को लौटने लगे रमन ने सहारा देकर माँ को उठाया और दोनों वहाँ पहुँचे जहाँ माधवी बैठी रो रही थी। दोनों ने उसे पकड़कर उठाया। माधवी रोती हुई उठी और रमन से लिपटकर रोने लगी। तीनों रो रहे थे वेदना ने तीनों को निकट कर दिया था। दुख ने क्षण-भर में वर्षों की शिकायतें धो डाली थीं। माधवी की रोते-रोते हिचकी बँध गई और बड़ी कठिनाई से वे उसे मोटर तक ले आए।
हवा तेज़ होती जा रही थी और घाटी में से आज एक विशेष भयानकता थी।
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