ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'स्वर्गलोक!'
'ओह...तो इसमें उसका क्या दोष? मृत्यु पर किसका बस?'
'यही तो समस्या है! मृत्यु ले जाती तो बेचारी छाती पर पत्थर रखकर धैर्य कर लेती?'
'तो?'
'वह इसी दुनिया में है और मौत की आड़ में दूसरा ब्याह करके सूख और आनन्द से जीवन व्यतीत कर रहा है।'
'उसने यह क्योंकर जाना?'
'बरसों से स्वयं को विधवा समझे, रमन के जीवन की थपेड़ों से रक्षा करती हुई वह अपनी मंज़िल की ओर बढ़ती चली जा रही थी कि...कि उसने अचानक उस व्यक्ति को देख लिया जिसके नाम पर वह विधवा का जीवन व्यतीत कर रही है। अपना नाम और वेशभूषा बदलकर वह व्यक्ति दूसरा जीवन बिता रहा है।'
'ओह! मुझे विश्वास नहीं आता।'
'आपको इसका विश्वास क्यों आएगा? आप ठहरे पुरुष और वह भी कोमल-हृदय! आपकी बुद्धि में ऐसा कठोर व्यवहार कैसे आ सकता है!'
'हाँ, यही तो सोच रहा हूँ कि ऐसा हृदय किसका होगा? यह सब तुमसे कामिनी ने कहा है?'
'जी, यह सच है। आप ही कहिए; इतनी दुख-भरी कहानी सुनकर कौन है जो दुःखी न हो?'
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