ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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विनोद बिस्तर में बैठा तकिये का सहारा लिए उन्हीं की प्रतीक्षा में था। रमन को देखते ही उसके मुख पर एक लालिमा की रेखा दौड़ गई। रमन एक अज्ञात आकर्षण-शक्ति से लपककर उसकी छाती से जा लगा। बड़े समय पश्चात् विनोद को मन का सुख प्राप्त हुआ। उसने रमन को अपने सीने में भींच लिया।
'कहिए, कैसे हैं?'
'पहले से बहुत अच्छे।'
'परन्तु आप...'
'तुम्हें सोता छोड़ आया न! मैं जानता था, यदि तुमसे अनुमति लेकर आता तो तुम मुझे कभी अच्छा होने तक न आने देते। परन्तु मैं वहां रुक न सकता था।'
'वह क्यों?'
'यहाँ माधवी अकेली थी। यदि बिस्तर पकड़ लेता तो डॉक्टर कभी न आने देता।'
'ओह! तो आपका विचार इन्हें शीघ्र ले आया।' रमन ने माधवी की ओर सम्बोधित होते हुए कहा।
'हाँ रमन, यदि यह न आते तो घबराहट में मेरा जीवन दूभर हो जाता।' मुस्कराते हुए माधवी ने उत्तर दिया।
विनोद की विवशता का विचार करके रमन चुप हो गया और मुंह-हाथ धोने गुसलखाने में चला गया। माधवी और विनोद दोनों इस अतिथि के आने से प्रसन्न थे।
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