ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
बाड़ी वाला बाँध टूट गया था और ब्रह्मपुत्र फुँकारती हुई नागिन की भाँति उन लोगों की ओर बढ़ती चली आ रहा थी। चारों ओर हाहाकार मच गया। अँधेरी राहों में पड़े लोगों को बहा ले जाने के लिए स्वयं नदी की तेज धारा ने भगवान् के कोप का रूप धारण कर लिया था।
पानी का बहाव प्रतिक्षण बढ़ रहा था। इससे पहले कि इससे बचने के लिए कोई उपाय किया जाता, सारी धरती जल-थल हो गई। लोग चीखते हुए जो थोड़ा-बहुत उठा सकते थे, लेकर किसी ऊँचे स्थान की ओर भागे। कोई छोटे बच्चों को खोज रहा था, कोई बूढ़ी माता को कन्धे पर उठाए दौड़ रहा था। एक विचित्र घबराहट और भाग-दौड़ मची हुई थी। किसी को कुछ नहीं सूझता था।
इस आपत्ति की सूचना पाते ही विनोद और केथू उधर ही भागे। माधवी और रजनिया घर पर अकेली ही थी। बाहर के सब कमरे पीड़ित लोगों के लिए खाली करके उन्होने अपना सामान भीतर वाले छोटे कमरे में बन्द कर दिया।
दूसरी ओर मिशन और कम्पनी के अधिकारियों ने अस्पताल, स्कूल और क्लब के लम्बे-चौड़े हॉल शरणार्थियों के लिए खोल दिए। कम्पनी के ट्रक और गाडियाँ उनके सामान और निर्बल-असहाय लोगों के लिए भिजवा दीं। किसी की बुद्धि काम न करती थी। जिस ओर जो भी गया, खिंचा चला गया।
थोड़े ही समय में कम्पनी के हॉल और क्लब बाढ़-पीडित लोगों से भर गए। कम्पनी के अधिकारियों, अस्पताल की नर्सों और मिशन के पादरियों ने मन खोलकर उन लोगों की सेवा आरम्भ कर दी। चाय, बिस्कुट के डिब्बे, कम्बल, किसी वस्तु का अभाव न था। विनोद के यहाँ रुके हुए लोगों की सेवा माधवी, रजनिया और स्वयं विनोद कर रहे थे।
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