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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


रजनिया और केथू तो स्टेज से बहुत दूर आकर खड़े हो गए, किन्तु विनोद बड़े गौरव से पाँव बढ़ाता स्टेज के बहुत निकट आ गया। उसका सिर गर्व से ऊपर उठा हुआ था। कोट उसने अभी तक असावधानी से अपने कन्धों पर डाल रखा था।

उसे देखते ही एकाएक पण्डाल में मौन छा गया। उसने मुस्कराते हुए पहले विलियम पर दृष्टि डाली, और हाथों से लोगों को चुप रहने का संकेत किया। उसके बाद वह स्टेज पर आया और ऊँचे स्वर में विलियम को सम्बोधित करके बोला-'मिस्टर विलियम, इनको चुप रहने के लिए इनमें कपडे बाँटने की अपेक्षा इनका दुःख बाँटना अधिक आवश्यक है। अपनी वासना-पूर्ति के लिए इनको सोने-चाँदी की झलक दिखाने की अपेक्षा इनके पेट की भूख मिटाने का प्रयत्न करना चाहिए। इनकी दरिद्रता का लाभ उठाकर तुम इन्हें अपने धर्म से तो विचलित कर सकते हो, परन्तु ये लोग आजीवन तुम्हारी स्वार्थ-पूर्ति में साथ न देंगे। यहाँ प्रश्न केवल अमीर-गरीब का नहीं बल्कि मालिक और मज़दूर का है, शिक्षित और अशिक्षित का है, खाते-पीते प्रसन्नचित्तों और मौत से रेंगते हुए कीड़ों का है...प्रश्न काले और गोरे का है...तुम कभी इन लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। यह एक ढोंग है, यह एक धोखा है, जिससे तुम लोगों को झूठा विश्वास दिलाते हुए इनकी विचार-शक्ति पर चाँदी का मुलम्मा चढ़ा देते हो और इनके कानों में यह असत्य भर देते हो कि तुम्हारी धमनियों में भी इन्हीं जैसा लहू... परन्तु ये बेचारे अज्ञानी लोग यह नहीं जानते कि तुम्हारा यह लहू केवल आज के लिए तुम्हारे शरीर में प्रवेश करता है। कल इसी विलियम की धमनियों में एक हिन्दुस्तानी के स्थान पर अंग्रेज़ का लहू खौलने लगेगा। कल फिर अपनी कुर्सी पर बैठते ही वे सब दिए वचन भूल जाएगा और अपने शासकों के हित के लिए इन बेचारों का लहू निचोड़ने पर तुल जाएगा। इन्हें ऐसी कुर्सी नहीं चाहिए जिस पर बैठकर तुम इन्हें और मूर्ख बना सको। इनको भूल से इतना तड़पाओ कि ये कुछ न सोच सकें...अपना दीन, धर्म, सभ्यता सब त्याग दें और इनकी बहू-बेटियाँ तुम्हारे चाँदी के चंद सिक्के के लिए तुम्हारे संकेत पर नाचने लगें...नहीं...नहीं...यह अब नहीं हो सकता!' विनोद ने अन्तिम शब्द ज़ोर से चिल्लाकर कहे। वायुमण्डल थर्रा उठा। पंडाल में बैठे सब लोगों ने ये शब्द दोहराए-'नहीं-नहीं, अब यह नहीं होगा!'

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