ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
विलियम लड़खड़ाता हुआ अलमारी की ओर बढ़ा और उसे खोलकर शराब की बोतल बाहर निकालने लगा। रजनिया ने चोरदृष्टि से देखा-अलमारी नानाप्रकार की शराब की बोतलों से भरी पड़ी थी। विलियम के होंठों पर वासनामय मुस्कान थी। वह रजनिया के शरीर पर दृष्टि जमाए घूर-घूरकर उसे देख रहा था। उसकी वासनाएँ तीव्र हो रही थीं। बिजली के उजाले में रजनिया के शरीर का अंग-अंग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। रजनिया भी निर्भय उसका निरीक्षण कर रही थी। नशे में भरी हुई उसकी आँखों के लाल डोरे और मुख पर एक विशेष क्रूरता देखकर उसे यों लगने लगा मानो किसी ने उसे बाघ के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया हो और हज़ारों दर्शक उसको देख रहे हों। उसकी वासनामयी दृष्टि को अधिक सहन न करते हुए वह पूछने लगी-'दारू पीते हो क्या?'
'नहीं...शर्बत है...पिओगी?' वह बोतल में से गिलास में शराब उँडेलते हुए बोला।
'ऊँहुँ।'
'पीओ न! देखो कितना आनन्द आता है।' वह उसके और निकट आते हुए बोला।
'नहीं, मैं नहीं पीऊँगी, मुझे...'
'ओह...एक आना!' वह हिचकी लेते हुए बोला।
'वाह साहब, एक आना? कितनी दूर चलकर तुम्हारे बँगले पर आई हूँ, अब एक आना नहीं लूँगी।'
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