ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
हवा सड़क के किनारे लगे हुए सरकड़ों में एक सरसराहट उत्पन्न कर रही थी। आधी रात...चाँदनी का निखार...अकेलापन और सामने यौवन की खिंची हुई कमान...नशा और चढ़ आया और विलियम का रोम-रोम गुदगुदा हो उठा; वासनाएँ उभर आईं। वह चाहता तो आज यहीं इस सौंदर्य की पुतली को अपनी मुट्ठी से भींच सकता था; परन्तु उसने सोचा, शीघ्रता से काम बिगड़ जाएगा। वह इस मधुरस का हर घूँट चटखारे ले-लेकर धीरे-धीरे पान करेगा। आज रजनिया का यौवन कुछ अनोखा ही था। साड़ी का नया ढंग, सुलझे हुए बाल और जूड़े में लगा हुआ लाल गुलाब का कुल, उसका साँवला शरीर शीशम के तने की भाँति चमक रहा था ग़उसके अंग-अंग से जवानी फूट रही थी। न जाने विलियम यों ही खड़ा कितनी देर तक उस छवि को आँखों में बसाए रखता यदि वह फिर एक बार उसे सम्बोधित करके न कह उठती- 'साहब, एक आना...कब से खड़ी हूँ!'
'ओह!' अपनी जेब टटोलते हुए विलियम बोला, 'बटुआ तो घर ही रह गया...चलोगी मेरे साथ?'
'कहाँ?' भोले मुख से उसने पूछा।
'मेरे बँगले पर...तुम्हें अच्छी-अच्छी चीज़ दूँगा...खाने को, पहनने को...और...और...बहुत पैसे भी...फिर जीवन-भर आराम से रहना।'
'ऊँहूँ! मैं वहाँ न जाऊँगी। सुना है तुम घर ले जाकर धोखा देते हो।'
'धोखा?...मैं?'
'हाँ...लालच देकर ले जाते हो और इज़्ज़त लूट लेते हो।' वह बनते हुए बोली।
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