ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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इस घटना से उसके मन ने एक नवसाहस का संचार अनुभव किया और उसके पाँव सफलता की ओर बढ़ने लगे।
एक सुहावनी शाम वह इन्हीं दृश्यों में खोया हुआ था कि माधवी बरामदे में से होती हुई उसके सामनेँ आ खड़ी हुई। विनोद मुस्कराते हुए उसे निहारने लगा, जैसे आज ही शायद प्रथम बार उसे जी भरके देखने का अवसर मिला हो। माँग में सिंदूर...कमर तक पहुँचती हुई नागिन-सी चोटी... लालिमामय गोरा रंग... पतले-पतले कोमल होंठ...वक्ष की उठान... उसका अंग-प्रत्यंग मन को मोह लेने वाला था मानो आकाश से चन्द्रमा की देवी उतर आई हो। वह स्वयं को भूलकर एकटक उसे देखता जा रहा था। माधवी उसकी दृष्टि को अधिक सहन न कर सकी और बोली-'यह क्या?'
'क्या?'
'आप मुझे घूरकर क्यों देख रहे हैं?'
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