ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
इस सम्बन्ध में हमारा उत्तर यह है कि मुक्तात्मा को जगन्नियन्तृत्व के अतिरिक्त अन्य सब शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। जगन्नियन्तृत्व का अर्थ है - विश्व के सारे स्थावर और जंगम के रूप, उनकी स्थिति और वासनाओं का नियन्तृत्व। पर मुक्तात्माओं में यह जगन्निन्तृत्व की शक्ति नहीं रहती। हाँ, उनकी परमात्मदृष्टि का आवरण अवश्थ दूर हो जाता है और उन्हें प्रत्यक्ष ब्रह्मानुभूति हो जाती है - बस यही उनका एकमात्र ऐश्वर्य है। यह कैसे जाना? शास्त्रवाक्य के बल पर। शास्त्र कहते हैं कि जगन्नियन्तृत्व केवल परब्रह्म का गुण है। जैसे - 'जिससे यह समुदय उत्पन्न होता है, जिसमें यह समुदय स्थित रहता है और जिसमें प्रलयकाल में यह समुदय लीन हो जाता है, तू उसी को जानने की इच्छा कर - वही ब्रह्म है।' यदि यह जगन्नियन्तृत्व-शक्ति मुक्तात्माओं का भी एक साधारण गुण रहे, तो उपर्युक्त श्लोक फिर ब्रह्म का लक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके जगन्नियन्तृत्व-गुण से ही उसका लक्षण प्रतिपादित हुआ है। असाधारण गुणों के द्वारा ही किसी वस्तु की व्याख्या होती है, उसका लक्षण प्रतिपादित होता है। अत: निम्नलिखित शास्त्रवाक्यों में यह प्रतिपादित हुआ है कि परमपुरुष ही जगन्नियमन का कर्ता है, और इन वाक्यों में ऐसी किसी बात का उल्लेख नहीं, जिससे मुक्तात्मा का जगन्नियन्तृत्व स्थापित हो सके।
शास्त्रवाक्य ये हैं –
'वत्स, आदि में एकमेवाद्वितीय ब्रह्म ही था। उसमें इस विचार का स्फुरण हुआ कि मैं बहु सृजन करूँगा। उसने तेज की सृष्टि की।'
'आदि में केवल ब्रह्म ही था। उसकी उत्क्रान्ति हुई। उससे क्षत्र नामक एक सुन्दर रूप प्रकट हुआ। वरुण, सोम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु, ईशान - ये सब देवता क्षत्र हैं।'
'पहले आत्मा ही थी; अन्य कुछ भी क्रियाशील नहीं था। उसे सृष्टिसृजन का विचार आया और फिर उसने सृष्टि कर डाली।'
'एकमात्र नारायण ही थे, न ब्रह्म थे, न ईशान, न द्यावा- पृथ्वी, नक्षत्र, जल, अग्नि, सोम और न सूर्य। अकेले उन्हें आनन्द न आया। ध्यान के अनन्तर उनके एक कन्या हुई - दश-इन्द्रिय।'
'जो पृथ्वी में वास करते हुए भी पृथ्वी से अलग हैं... जो आत्मा में रहते हुए...' इत्यादि।''
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