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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


दूसरे सूत्र की व्याख्या करते हुए रामानुज कहते हैं, ''यदि तुम कहो कि ऐसा नहीं है, वेदों में ऐसे अनेक श्लोक हैं, जो इसका खण्डन करते है, तो वास्तव में वेदों के उन-उन स्थानों पर केवल निम्न देवलोकों के सम्बन्ध में ही मुक्तात्मा का ऐश्वर्य है।'' यह भी एक सरल मीमांसा है। यद्यपि रामानुज समष्टि की एकता स्वीकार करते हैं, तथापि उनके मतानुसार इस समष्टि के भीतर नित्य भेद है। अतएव यह मत भी कार्यत: द्वैतभावात्मक होने के कारण, जीवात्मा और सगुण ब्रह्म (ईश्वर) में भेद बनाये रखना रामानुज के लिए कोई कठिन कार्य न था।

अब इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध अद्वैतवादी का क्या कहना है, यह समझने का प्रयत्न करें। हमे देखेंगे कि अद्वैतमत द्वैतमत की समस्त आशाओं और स्पृहाओं की किस प्रकार रक्षा और पूर्ति करता है, और फिर साथ ही किस प्रकार ब्रह्मभावापन्न मानवजाति की परमोच्च गति के साथ सामंजस्य रखते हुए अपने भी सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। जो व्यक्ति मुक्तिलाभ के बाद भी अपने व्यक्तित्व की रक्षा के इच्छुक हैं - भगवान से स्वतन्त्र रहना चाहते हैं, उन्हें अपनी स्पृहाओं को चरितार्थ करने और सगुण ब्रह्म का सम्भोग करने का यथेष्ट अवसर मिलेगा। ऐसे लोगों के बारे में भागवत-पुराण में कहा है, ''हे राजन्, हरि के गुण ही ऐसे हैं कि समस्त बन्धनों से मुक्त, आत्माराम ऋषिमुनि भी भगवान की अहैतुकी भक्ति करते हैं।''
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिम् इत्थंभूतगुणो हरि:।। - श्रीमद्भागवत, 1/7/10 )

सांख्य में इन्हीं लोगों को प्रकृतिलीन कहा गया है; सिद्धिलाभ के अनन्तर ये ही दूसरे कल्प में विभिन्न जगत् के शासनकर्ता के रूप में प्रकट होते हैं। किन्तु इनमें से कोई भी कभी ईश्वर-तुल्य नहीं हो पाता। जो ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न स्रष्टा, जहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान और न ज्ञेय, जहाँ न 'मैं' है, न 'तुम' और न 'वह', जहाँ न प्रमाता है, न प्रमेय और न प्रमाण, जहाँ 'कौन किसको देखे' - वे पुरुष सब से अतीत हो गये हैं और वहाँ पहुँच गये हैं, जहाँ 'न वाणी पहुँच सकती है, न मन' और जिसे श्रुति 'नेति, नेति' कहकर पुकारती है। परन्तु जो इस अवस्था की प्राप्ति नहीं कर सकते, अथवा जो इच्छा नहीं करते, वे उस एक अविभक्त ब्रह्म को प्रकृति, आत्मा और इन दोनों में ओत- प्रोत एवं इनके आश्रयस्वरूप ईश्वर - इस त्रिधा-विभक्त रूप में देखेंगे।

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