ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
''प्रभो, मैं तुम्हारे बारे में और कुछ नहीं जानता, केवल इतना जानता हूँ कि तुम मेरे हो। तुम सुन्दर हो! अहा, तुम अत्यन्त सुन्दर हो! तुम स्वयं सौन्दर्यस्वरूप हो!'' हम सभी में सौन्दर्यपिपासा विद्यमान है। भक्तियोग केवल इतना कहता है कि इस सौन्दर्य-पिपासा की गति भगवान की ओर फेर दो। मानव-मुखड़े, आकाश, तारा या चन्द्रमा में जो सौन्दर्य दिखता है, वह आया कहाँ से? वह भगवान के उस सर्वतोमुखी प्रकृत सौन्दर्य का ही आशिक प्रकाश मात्र है। उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित होते हैं।''
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति। - कठोपनिषद 2/2/15
उसी का तेज सब वस्तुओं में है। भक्ति की इस उच्च अवस्था को प्राप्त करो। उससे तुम एकदम अपने क्षुद्र अहंभाव को भूल जाओगे। छोटे छोटे सांसारिक स्वार्थों का त्याग कर दो। यह न समझ बैठना कि मानवता ही तुम्हारे समस्त मानवी और उससे उच्चतर ध्येयों का भी केन्द्र है। तुम केवल एक साक्षी की तरह, एक जिज्ञासु की तरह खड़े रहो और प्रकृति की लीलाएँ देखते जाओ। मनुष्य के प्रति आसक्ति-रहित होओ और देखो, यह प्रबल प्रेमप्रवाह जगत् में किस प्रकार, कार्य कर रहा है!
हो सकता है, कभी कभी एक-आध धक्का भी लगे, परन्तु वह परमप्रेम की प्राप्ति के मार्ग में होनेवाली एक घटना मात्र है। सम्भव है, कहीं थोड़ा द्वन्द्व छिड़े, अथवा कोई थोड़ा फिसल जाय, पर ये सब उस परमप्रेम में आरोहण के सोपान मात्र हैं। चाहे जितने द्वन्द्व छिड़ें, चाहे जितने संघर्ष आयें, पर तुम साक्षी होकर बस एक ओर खड़े रहो। ये द्वन्द्व तुम्हें कभी खटकेंगे, जब तुम संसार-प्रवाह में पड़े होगे। परन्तु जब तुम उसके बाहर निकल जाओगे और केवल एक दर्शक के रूप में खड़े रहोगे, तो देखोगे कि प्रेमस्वरूप भगवान अपने आपको अनन्त प्रकार से प्रकाशित कर रहे हैं।
''जहाँ कहीं थोड़ासा भी आनन्द है, चाहे वह घोर विषय-भोग का ही क्यों न हो, वहाँ उस अनन्त आनन्दस्वरूप भगवान का ही अंश है।''
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