ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भक्त का वैराग्य - प्रेमजन्य
प्रकृति में सर्वत्र हम प्रेम का विकास देखते हैं। मानव-समाज में जो कुछ सुन्दर और महान् है, वह समस्त प्रेम-प्रसूत है; फिर जो कुछ खराब, यही नहीं, बल्कि पैशाचिक है, वह भी उसी प्रेमभाव का विकृत रूप है। पति-पत्नी का विशुद्ध दाम्पत्य-प्रेम और अति नीच कामवृत्ति दोनों उस प्रेम के ही दो रूप हैं। भाव एक ही है, पर भिन्न अवस्था में उसके भिन्न भिन्न रूप होते हैं। यह एक ही प्रेम एक ओर तो मनुष्य को भलाई करने और अपना सब कुछ गरीबों को बाँट देने के लिए प्रेरित करता है, फिर दूसरी ओर वही एक दूसरे मनुष्य को अपने बन्धु-बान्धवों का गला काटने और उनका सर्वस्व अपहरण कर लेने की प्रेरणा देता है। यह दूसरा व्यक्ति जिस प्रकार अपने आपसे प्यार करता है, पहला व्यक्ति उसी प्रकार दूसरों से प्यार करता है। पहली दशा में प्रेम की गति ठीक और उचित दिशा में है, पर दूसरी दशा में वही बुरी दिशा में। जो आग हमारे लिए भोजन पकाती है, वह एक बच्चे को जला भी सकती है। किन्तु इसमें आग का कोई दोष नहीं। उसका जैसा व्यवहार किया जायगा, वैसा फल मिलेगा। अतएव यह प्रेम, यह प्रबल आसंगस्पृहा, दो व्यक्तियों के एकप्राण हो जाने की यह तीव्र आकांक्षा, और सम्भवत:, अन्त में सब की उस एक स्वरूप में विलीन हो जाने की इच्छा, उत्तम या अधम रूप से सर्वत्र प्रकाशित है।
भक्तियोग उच्चतर प्रेम का विज्ञान है। वह हमें दर्शाता है कि हम प्रेम को ठीक रास्ते से कैसे लगायें, कैसे उसे वश में लायें, उसका सद्व्यवहार किस प्रकार करें, किस प्रकार एक नये मार्ग में उसे मोड़ दें और उससे श्रेष्ठ और महत्तम फल अर्थात् जीवन्मुक्त अवस्था किस प्रकार प्राप्त करें। भक्तियोग कुछ छोड़ने-छाड़ने की शिक्षा नहीं देता; वह केवल कहता है, ''परमेश्वर में आसक्त होओ।'' और जो परमेश्वर के प्रेम में उन्मत्त हो गया है, उसकी स्वभावत: नीच विषयों में कोई प्रवृत्ति नहीं रह सकती।
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