लोगों की राय
ई-पुस्तकें >>
भक्तियोग
भक्तियोग
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ :
Ebook
|
पुस्तक क्रमांक : 9558
|
आईएसबीएन :9781613013427 |
 |
|
8 पाठकों को प्रिय
283 पाठक हैं
|
स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
उदाहरणार्थ इस बात का डर है कि गृहीता आत्मा क्षणिक भावुकता को कहीं वास्तविक धर्मपिपासा न समझ बैठे। हम अपने जीवन में ही इसका परीक्षण कर सकते हैं। हमारे जीवनकाल में कई बार ऐसा होता है कि हमारे एक अत्यन्त प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और उससे हमें बड़ा सदमा पहुँचता है। तब हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम जिसे पकड़ने जाते हैं वही हमारे हाथों से निकला जा रहा है, मानो पैरों तले जमीन खिसकी जा रही है; हमारी आंखों में अँधेरा छा जाता है, हमें किसी दृढ़तर और उच्चतर आश्रय की आवश्यकता अनुभव होती है और हम सोचते हैं कि अब हमें अवश्य धार्मिक हो जाना चाहिए। कुछ दिनों बाद वह भाव-तरंग नष्ट हो जाती है और हम जहाँ थे, वहीं के वहीं रह जाते हैं। हममें से सभी बहुधा ऐसी भाव-तरंगों को वास्तविक धर्मपिपासा समझ बैठते हैं। और जब तक हम उन क्षणिक आवेशों के धोखे में रहेंगे, तब तक धर्म के लिए सच्ची और स्थायी व्याकुलता नहीं आयगी, तब तक हमें ऐसा पुरुष नहीं मिलेगा, जो हममें धर्म-संचार कर दे सके।
अतएव जब कभी हममें यह भावना उदित हो कि 'अरे! मैंने सत्य की प्राप्ति के लिए इतना प्रयत्न किया, फिर भी कुछ न हुआ; मेरे सारे प्रयत्न व्यर्थ ही हुए!' - तो उस समय ऐसी शिकायत करने के बदले हमारा प्रथम कर्तव्य यह होगा कि हम अपने आप से ही पूछें, अपने हृदय को टटोलें और देखें कि हमारी वह स्पृहा यथार्थ है अथवा नहीं। ऐसा करने पर पता चलेगा कि अधिकतर स्थलों पर हम सत्य को ग्रहण करने के उपयुक्त नहीं थे, हममें धर्म के लिए सच्ची पिपासा नहीं थी।
फिर, शक्तिसंचारक गुरु के सम्बन्ध में तो और भी बड़े-बड़े खतरों की सम्भावना है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो स्वयं होते तो बड़े अज्ञानी है, परन्तु फिर भी अहंकारवश अपने को सर्वज्ञ समझते हैं; इतना ही नहीं बल्कि दूसरों को भी अपने कन्धों पर ले जाने को तैयार रहते हैं। इस प्रकार अन्धा अन्धे का अगुआ बन दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ते हैं। ''अज्ञान से घिरे हुए, अत्यन्त निर्बुद्ध होने पर भी अपने को महापण्डित समझने वाले मूढ़ व्यक्ति, अन्धे के नेतृत्व में चलनेवाले अन्धों के समान चारों ओर ठोकरें खाते हुए भटकते फिरते हैं।''
अविद्यायामू अन्तरे वर्तमाना: स्वयं धीरा: पण्डितम्मन्यमाना:।
जङघन्यमाना: परियन्ति मूढा, अन्धेनैव नीयमाना: यथान्धा:।।
- मुण्डकोपनिषद् 1/2/8
संसार तो ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। हर एक आदमी गुरु होना चाहता है। एक भिखारी भी चाहता है कि वह लाखों का दान कर डाले! जैसे हास्यास्पद ये भिखारी हैं, वैसे ही ये गुरु भी!
* * *
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai