ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है, उसे शिष्य कहते हैं। किसी भी आत्मा में इस प्रकार शक्तिसंचार करने के लिए पहले तो, जिस आत्मा से यह संचार होता हो, उसमें स्वयं इस संचार की शक्ति विद्यमान रहे, और दूसरे, जिस आत्मा में यह शक्ति संचारित की जाय, वह इसे ग्रहण करने योग्य हो। बीज भी उम्दा और सजीव रहे एवं जमीन भी अच्छी जोती हुई हो। और जब ये दोनों बातें मिल जाती हैं, तो वहाँ प्रकृत धर्म का अपूर्व विकास होता है। 'यथार्थ धर्म-गुरु में अपूर्व योग्यता होनी चाहिए, और उसके शिष्य को भी कुशल होना चाहिए'।
‘आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा’ इत्यादि। - कठोपनिषद् 1/2/7)
जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं, तभी अद्भुत आध्यात्मिक जागृति होती है, अन्यथा नहीं। ऐसे ही पुरुष वास्तव में सच्चे गुरु होते हैं, और ऐसे ही व्यक्ति आदर्श शिष्य या आदर्श साधक कहे जाते हैं। अन्य सब लोगों के लिए तो आध्यात्मिकता बस एक खिलवाड़ है। उनमें बस थोड़ा सा 'एक कौतूहल भर उत्पन्न हो गया है, बस थोड़ी सी बौद्धिक स्पृहा भर जग गयी है। पर वे अभी भी धर्मक्षितिज की बाहरी सीमा पर ही खड़े हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इसका भी कुछ महत्व अवश्य है, क्योंकि हो सकता है, कुछ समय बाद यही भाव सच्ची धर्म-पिपासा में परिवर्तित हो जाय। और यह भी प्रकृति का एक बड़ा अद्भुत नियम है कि ज्योंही भूमि तैयार हो जाती है, त्यों ही बीज को आना ही चाहिए, और वह आता भी है। ज्यों ही आत्मा की धर्मपिपासा प्रबल होती है, त्यों ही धर्मशक्तिसंचारक पुरुष को उस आत्मा की सहायता के लिए आना ही चाहिए, और वे आते भी हैं। जब गृहीता की आत्मा में धर्मप्रकाश की आकर्षण-शक्ति पूर्ण और प्रबल हो जाती है, तो इस आकर्षण से आकृष्ट प्रकाशदायिनी शक्ति स्वयं ही आ जाती है। परन्तु इस मार्ग में कुछ खतरे भी हैं।
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